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शक्ति बन कर मण्डला रहे हैं । और दल के दल वे उन अग्नि-शिखाओं पर टूट रहे हैं । और उनके पाद-प्रान्त में ढेर हो रहे हैं । . .
जाने कब· · · मशालें हठात् गुल हो गयीं। एक स्तब्ध, अफाट सन्नाटे में अनगिन साँसें आपस में गुत्थम-गुत्था हो रही हैं। · · · और फिर एक गहन सुषुप्ति का समाधीत प्रसार, और उसमें जंगल यकसा बोल रहा है ।
· · · सबेरे जब वह आदिम लोक-समूह जागा, तो देखा कि बलि-पुरुष वहाँ कहीं नहीं था। उन्होंने अनुभव किया कि वह उनके भीतर उदरस्थ हो कर उनकी रक्त-शिराओं में आत्मसात् हो गया है । बलि-यज्ञ का ऐसा मधुपर्क तो उन्होंने पहले कभी चखा नहीं था । अपूर्व है यह स्वाद, और यह तृप्ति । इस भोजन का
अन्त नहीं ! . . .
__. 'आर्य देश की ओर लौटते हुए, पूर्णकलश ग्राम की तटिनी से विहार कर रहा हूँ।
देख रहा हूँ, सामने से ये जो दो जन आ रहे हैं, चोर हैं। लाढ़ देश की अनार्य भूमि की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं । ठीक पूर्णकलश की भागल पर मैं उन्हें सामने से आता दिखाई पड़ा । गोशालक भाँप कर मेरे पिछवाड़े गुप-चुप मुझ से एकमेक हो रहा । मैं अकेला हूँ।
'ओह अपशकुन' · · नंगा !' 'जहाँ जा रहे हो, वह भी नंगों का ही देश है। उनका क्या लूटोगे ?' 'चुप' 'लुच्चा कहीं का ।' 'उनके पास जो था, वह तो मैं लूट लाया ।' 'अरे यह भी कोई तस्कर जान पड़ता है। . .'
'लुटेरा हूँ, लेकिन पहले स्वयम् लुटता हूँ, फिर औरों को लूटता हूँ। ऐसा कि कुछ छोड़ता नहीं।'
_ 'अरे यह तो कुछ बोलता नहीं ! फिर जवाब कौन दे रहा है ? जान पड़ता है, मंत्रवादी चोर है।'
'ज़रूर कहीं गहरा खजाना गड़ा है इसके पास ।'
'ओ मायावी, बता कहाँ गड़ा है तेरा ख़ज़ाना ?' 'मेरी नाभि में ! . . .' 'यों नहीं बतायेगा यह । इसकी नाभि फटेगी, तभी यह बोलेगा।'
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