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अनजाना था । अपने आँसुओं को देख कर वे चकित और आल्हादित हैं। उनमें अपने पुरुषों और बच्चों के प्रति ऐसा प्यार उमग आया, जैसा पहले कभी उन्होंने अनुभव नहीं किया था। मेरे घावों में एक साथ कितने-कितने हृदय कसक उठे हैं । शांति और सुख का यह आस्वाद अपूर्व है। ___.. 'शुभ्र भूमि में न्यग्रोध के किसी छतनार वन तले एक विशाल चबूतरा देखा। वह इन आदिम जंगलियों का बलि-चौरा है। कोई आर्य भूला-भटका आ जाये, उनके देश में, तो उसकी सुन्दर काया को वे यहाँ अपने परोक्ष देवता की बलि चढ़ाते हैं।
चबूतरे की शांति में एक अद्भुत आवाहन है : ' . 'आओ आर्य, मैं कब से तुम्हारी प्रतीक्षा में हूँ।' न्यग्रोध के शाखा-पल्लवों ने मरमरा कर हामी भरी। · · · मैं चबूतरे के ठीक केन्द्र में जा कर प्रतिमा-योग से ध्यानस्थ हो गया । गोशाला भी मेरी पीठ पीछे सट कर, सुरक्षा की खोल में ध्यानलीन होने की चेष्टा करने लगा । ___ • • “सारे गाँव में नक्काड़ा पीट कर घोषणा हुई :
'बलि चौरे पर बलि-पुरुष स्वयम् ही आ बैठा है । हमारी भूमि का भाग खुल गया । बलि-यज्ञ की तैयारी करो· · · !'
साँझ डूबते न डूबते सैकड़ों मशालों के साथ दल के दल बाँध कर नर-नारी, आबालवृद्ध-वनिता, घोर कोलाहल के साथ चबूतरे के चारों ओर घूमर देते दिखाई पड़े। बलि-पुरुष के चारों ओर आग जला दी गई है। लपटों के मण्डल में वह निश्चल अवस्थित है। नाचते हुए सिंदूर-चर्चित कृष्ण बदन कराल भैरव-भैरवियों जैसे वे स्त्री-पुरुष, उन लपटों में अपने भाले और बल्लम तपाते जाते हैं, और ज्वालाकेन्द्र में बैठे हुए आर्य की देह में चुभोते जाते हैं । बलि-पुरुष तो चं भी नहीं करता। लो, उसकी ओर से वे स्वयम् ही उसके दाहक वेधन की वेदना को अपनी ही चीखों और कराहों से व्यक्त करते जाते हैं । इस आर्य की चुप्पी जितनी ही गहरा रही है, इसकी अक्रियता जितनी ही प्रखर हो रही है, उन बलि-कर्मियों के हजारों बरसों से रुद्ध हृदय अधिकाधिक सम्वेदित होते जा रहे हैं।
.. एकाएक उन्होने देखा, आसपास का वह लपटों का घेरा जाने कहाँ अन्तर्धान हो गया । स्वयम् बलि-पुरुष के शरीर से ही एक वह्नि-मण्डल फूट आया है। उसका शरीर ही मानी नील-लोहित ज्वालाओं का हो गया है। पर कैसे कोमल, मधुर, शीतल हैं उसकी देह के ये अग्नि-स्फुलिंग।
फूलों की तरह वे उन्हें मानों तोड़ कर उनसे अपने अंगों का शृंगार कर रहे हैं । फलों की तरह उन्हें हाथों में झेल कर, वे बड़े चाव से खा रहे हैं ।
सोमल वृक्ष की पत्तियों की ताज़ी हरी सुरा पीते और नाच-गान करते वे यज्ञ-पुरुष की ओर तेजी से झपट रहे हैं । वे व्यक्ति न रह कर एक पुंजीभूत प्राण
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