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________________ नंगे पहाड़ों-से पुरुष । नंगी धरती-सी नारियाँ । पेड़-पौधों जैसे बच्चे। विशुद्ध इच्छाजीवी हैं। उमंगों और आवेगों पर ही जीते हैं। हिंसा उनका हर क्षण का खेल है। वे नहीं जानते, कि वे क्या कर रहे हैं । गोशाले को वे उठा कर चकरी या लट्ट की तरह घमा देते हैं। खेल-कौतूहल में उसकी खूब मरम्मत करते हैं। वह इस समर्पण से शाकान्न पा जाता है। उनकी मांस-भक्षिता पर वह धिक्कार वाणी बोलता है । वे उसके उच्च उद्घोषों को अपना अभिनंदन मान कर, उसे मनचाहे अन्नपान से तृप्त रखते हैं। मुझे भी फलमूल ला कर भेंट करते हैं । मैं मुस्कुरा देता हूँ । वे समझते हैं, मैंने आहार कर लिया। लाढ़ प्रदेश से विहार करने के दिन, एक छतनार बबूल वृक्ष तले पूजित पड़ी शिला पर ध्यानारूढ़ हो गया। “सहसा ही दल बाँध कर नर-नारी चारों ओर घूमर नाचते दिखाई पड़े । झाँझरों की झमक, खंजड़ी की खनक, तुरही की तान, ढोलों की धमक । सारा जंगल गूंज रहा है । नदी, पर्वत, जलाशय उनके साथ एकतान नाच और गा रहे हैं । उनके भोले भाविक आदिम हृदयों को भरोसा हो गया है, कि सदियों से पूजित इस पत्थर का देवता आज प्रकट हो गया है। · वज्रभूमि में प्रवेश करते ही जंगली साँढ़ हम पर छोड़े गये । डकारते हुए चढ़ आते हैं वे प्राणि, सींगों से भिट्टी मार कर हमें उछाल देते हैं । और कई एकत्रित सींगों की शैया पर हम झेल लिये जाते हैं। बीच-बीच में गोशालक की चीख सुनाई पड़ जाती है। फिर वह मेरे अनुकरण में चुप हो रहता है, और धीर भाव से इन आघातों को सहता है । तीखे सींगों के वेध से शरीर में जगह-जगह गड्ढे पड़ जाते हैं। रक्त-मांस निकल आते हैं। · · · उत्सगित होकर सहते ही बनता है । लगता है, जैसे सारे शरीर में से कई राहें खुल रही हैं। कितना सारा आकाश भीतर आ गया है । हाँफते हुए सांढ़ हारे-थके खड़े, चुपचाप ताक रहे हैं । उनकी आँखों के कोयों में जल-बिन्दु चमक रहे हैं। __ • • 'सुडोल, जामुनी पठ्ठों वाले नर-नारी काना-फूसी कर रहे हैं : 'कैसा उजला और मुलायम मक्खन सा है इस आर्य का मांस · · ! अरे, इसके घावों में से रक्त नहीं, दूध झर रहा है।' वे बहुत उत्कंठित हो गये हैं। वे प्यार भी चोट दे कर ही करते हैं। उनके स्वभाव की विवशता को समझ रहा हूँ । इतनी चोटें एक साथ हुईं, कि सारा शरीर ही चूरचूर हो गया । पीड़ा हो तो किसे हो ? 'अरे कितनी मधुर हैं, इस आर्य की बोटियां ?'. 'खाओ प्रिय, तुम्हारे ही लिये हैं, मेरी सारी बोटियाँ।' 'अरे कितना अच्छा है यह आर्य । यह तो मीठे फलों से लदा वृक्ष है । आओ इसकी छाया में विरमें और फल तोड़ कर खायें।' उन सुन्दर काली मांओं ने अपने उन्नत नग्न स्तनों से श्रमण के घावों को चाप लिया । ऐसा भरपूर उमड़ आया उनका मातृत्व कि वे रो आईं। रोना तो उन्हें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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