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________________ अणु-अणु मेरा आगार हो जाये जम्बूखण्ड और कूपिका मे विहार करता हुआ, वैशाली की ओर अग्रसर हूँ। एक स्थल पर पहुँच कर, एक दोराहा सामने आया। एक मार्ग राजगृही को जाता है, दूसरा वैशाली को। चलते-चलते अचानक ही गोशालक बोला : 'नहीं भन्ते, अव मैं आपके साथ नहीं चल सकता । आपका मार्ग दुर्गम है। उसमें पद-पद पर आपद-विपद का अन्त नहीं। उस पर चलना मेरे वश का नहीं।' 'फिर यह भी है कि जब कोई मुझे मारता है, तो आप मुझे बचाते नहीं । तटस्थ ही रहते हैं। उत्तर तक नहीं देते । आप कैसे तारक हैं, कैसे स्वामी हैं, समझ में नहीं आता । आप तो अपनी ही रक्षा नहीं करते। आये दिन आप पर विकट उपसर्ग होते हैं, मुझे भी उनका भोग बनना पड़ता है। आग ही तो ठहरी, सूखे के साथ मुझ हरे को भी जला देती है। और लोग भी पक्षपाती हैं, पहले मेरा निकन्दन निकालते हैं, तब आपको पीटते हैं। आप तो पिटकर भी पटिये की तरह अप्रभावित रहते हैं, मेरा तो चूरा हो जाता है । सुस्वादु भोजन को मन तड़पता है, पर आप तो सदा उपासी, सो मुझे कई बार भूखों मरना पड़ता है। - ‘फिर आप तो पाषाण और रत्न में, अरण्य और आलय में, धूप और छाँव में, अग्नि और जल में, संहारक और सेवक में कोई भेद ही नहीं करते । निविशेष समदृष्टि से विचरते हैं। ऐसे में मूढ पुत्र की तरह आपकी सेवा कब तक करूँ। निष्फल ताल-वृक्ष की फलाशाहीन मेवा में इतने वर्ष बिता दिये । इस भ्रांति में कब तक रहूँ। हो सके तो मेरी सेवा याद रखना । कभी तालवृक्ष फले तो मुझ अकिंचन को याद करें, प्रभु ! बिदा लेता हूँ भन्ते, आज्ञा दें. . ।' तालवृक्ष के निष्फल ढूंठ ने कोई उत्तर नहीं दिया। मंखलिपुत्र गोशालक अकेला गजगृही के मार्ग पर चल दिया। .अविश्रान्त वैशाली के मार्ग पर विहार कर रहा हूँ । एक निगाह मेरी गोशालक का अनुसरण कर रही है। . . . वह राह से भटक कर एक घनघोर अरण्य में प्रवेश कर गया है। उसका चित्त जाने कहाँ पीछे छूट गया है। वह उन्मन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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