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अनहोना बेटा
महारानी त्रिशला अपने कक्ष में, एक पूर्णकार शीशे के सामने खड़ी, फूलों से अपने केशों का सिंगार कर रही हैं। तभी किसी ने सहसा टोका :
'अरे मां, तुम यह क्या कर रही हो?' 'देख न, जूड़े में फूल टाँक रही हूँ। सुन्दर लगते हैं न?' 'नहीं मां, बिल्कुल नहीं। फूल तो डाल पर ही सुन्दर लगते हैं , जूड़े पर नहीं।' 'क्यों, बेटा?' 'हर चीज़ अपनी जगह पर सुन्दर लगती है, माँ। वहां से उसे हटा दो तो,
फिर ..
'तो फिर क्या ?' _ . 'वह मर जाती है। तुम्हारे जूड़े में मरे हुए फूल लगे हैं। इनकी मुस्कान तुमने छीन ली, माँ। ये ढेर-ढेर फल जो तुम्हारी शैया में, स्तवकों में तोड़ कर सजा दिये गये हैं न, वे सब मुझे मरे हुए लगते हैं।' ___'इतने सुन्दर लग रहे हैं, इतनी सुगन्ध भरी है कमरे में। फिर फूल मरे हुए कैसे?'
'पता नहीं, मुझे क्यों लगता है ऐसा। ये फूल खुश नहीं लगते, नाराज हो गये हैं, माँ। ये डाल पर ही प्रसन्न थे।'
'तू तो कहता है, मर गये हैं।'
'हाँ, इनमें कुछ मर गया है माँ, जो मुझे दिखता है। हाँ-हां, याद आया। उस दिन उद्यान-क्रीड़ा में, मालिन वनमाला को एक चम्पक फूल तोड़ते हुए मैंने देखा था। अरे माँ, देखो न, तब ऐसी सिसकारी फूटी थी डाल पर ! नन्हा फूल रो दिया था, और उसकी डाली भी। - हमको बहुत दुःख हुआ था उससे ।'
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