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'तेरी तो सभी बातें अनहोनी हैं, मान ! तू तो चलता भी ऐसे है कि कहीं धरती को दुख न हो जाये। लकड़ी, पत्थर, धातू जैसी जड़ चीज़ों को भी ऐसे छूता है, जैसे वे जीवित हों । तू तो खंभे से भी गाल सटा कर उसे प्यार करता है । तेरे खेल समझ में नहीं आते ।'
'क्या करें माँ, हमको सब कुछ जीवित लगता है । सब ओर प्राण ही प्राण लगता है । हमारे प्राण को ऐसा ही लगता है। हम क्या करें !'
'चेतन में तो ठीक है, पर तू तो जड़ पदार्थों को भी ऐसे छूता है, जैसे सहला रहा हो ।'
'अरे माँ, चेतन कहाँ है, और कहाँ नहीं है, वह कौन बताये। हम को तो सब जीवित लगता है । सब सुन्दर । 'देखो तुमने फूलों को तुड़वाकर, सब असुन्दर कर दिया। मर गये बेचारे
। '
'तो हम सिंगार काहे से करें, लालू ?'
'ओ तो क्या फूलों के प्राण लोगी, उसके लिए ? तुम अपना सिंगार अपने से करो । फूल अपने से करें। तुम उनकी सुन्दरता देखो, वे तुम्हारी देखें । तुमको फूल की सुन्दरता से मतलब थोड़े है, तुम्हें तो अपनी सुन्दरता की पड़ी है। सबको अपनी-अपनी पड़ी है। मरे फूल से सिंगार करके, तुम मुझे सुन्दर नहीं लगतीं, माँ !
'अच्छा बाबा, चुप कर । तेरी बातें सारी दुनिया से निराली हैं। तेरे कहने से सब चलें, तो दुनिया और की और हो जाये ।'
'सो तो होगी ही । तुम्हारी यह दुनिया, हमें अच्छी नहीं लगती। सब एकदूसरे को मार कर जीते हैं यहाँ ।'
'तो फिर तू क्या करेगा ?'
'हम तुम्हारी इस दुनिया को उलट देंगे । अपने मन की बना लेंगे
'बना लिये ! तुमने कहा, और हो लिया !'
'अरे हाँ हो लिया, माँ, तुमको हम करके बतायेंगे ।' महारानी सिंगार करना भूल गयीं । अनमनस्क हो, कमरे में सजे सारे फूलों को डूबी-डूबी आँखों से देखने
लगीं ।
'वर्द्धमान
बालक वहाँ से जा चुका था ।
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