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________________ ७३ प्रभातकालीन राज-सभा में महाराज सिद्धार्थ अपने रत्नों से जाज्वल्यमान भव्य सुवर्ण सिंहासन पर गौरवपूर्वक आसीन हैं। मंगलाचरण के उपरान्त बन्दीजन महाराज का यशोगान कर रहे हैं। एकाएक दिखाई पड़ा, नग्न बाल-केसरी सा कुमार, केशरिया आभा बिखेरता, झांझर झनकाता चला आ रहा है। सब अचंभित और आनंदित थे, बालक-राजा को पहली बार यों राज-सभा में आते देख कर। कुमार सीधे राज सिंहासन के पास पहुँच, एक पैर उसकी सीढ़ी पर रख बोला : 'अय महाराज, हम राजा हैं, तुम नहीं। अच्छा तुम भी राजा, हम भी राजा। पर हम तुम्हारे भी राजा हैं, हम सबके राजा हैं। सिंहासन पर हम बैठेंगे। महाराज, खड़े हो जाइये न, सिंहासन हमें दीजिये। हम चक्रवर्ती राजा हैं, हमको पता चल गया है. . !' ___ महाराज आनन्द-विभोर हो, अश्रु-गद्गद् से उठ खड़े हुए । बेटे को बहुत प्यार से बांहों में भर मान-संभ्रमपूर्वक सिंहासन पर आसीन कर दिया। स्वयम् पास ही नम्रीभूत आज्ञावाहकसे खड़े रह गये। · ठीक सम्राटों की गरिमा को पराजित करने वाली, किसी अपूर्व गौरवभंगी से, निर्वसन बाल प्रभु ने सिंहासन को अपनी महिमा से मानों क्षण भर पराभूत कर दिया। सिंहासन ने मान भंग का जैसे आघात अनुभव किया। 'अय बन्दीजनो, हमारा यशोगान करो। हम राजाओंके राजा हैं. · · !' ___अन्तःपुर के झरोखे पर से महारानी त्रिशला अपने परिकर सहित यह दृश्य देख कर स्तंभित और आत्म-विभोर थीं। उनकी आँसुओं में डूबती आँखों में जैसे झलका : कुमार मानो अन्तरिक्ष में सिंहमुद्रा से आसीन है : और सिंहासन उसके चरणों में समर्पित है। बन्दियों के मुख से कोई अभूतपूर्व स्तुतियाँ उच्चरित होने लगीं। नर्तकियों की हारमाला, समवेत संगीत की लहरों पर आलोड़ित होने लगी। महाराज और सभासद स्वयम्, मात्र दृश्य होकर रह गये। और उस सबका एकमेव द्रष्टा कब वहाँ से चम्पत हो गया, पता ही न चला। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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