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पत्ती, फूल को समूचा देखता है । फिर उसके रंग, आकृति, किनारों को देखता है । फिर एक-एक पत्ती, फूल, पाँखुरी, उनकी बारीक नसों के तंतुजाल, और उनमें बहते हरियाले रस- रुधिर, सबके साथ वह तन्मय होता चला जाता है। हवा
हिलते, मर्मते डाल-पत्तों के इंगितों को बूझता है । डोलती लताओं के आवाहन से विभोर हो जाता है । सरसियों की ऊर्मियाँ उसके अंगों में कम्प जगाती हैं । उनमें छाये कमलों की मरम केसर और पराग-रज उसके तन-मन को जाने कैसे स्पर्शबोध से बेसुध कर देती है ।
महारानी अपने परिकर के साथ विचरती हुईं, हरी दूब के उस विस्तृत मंडल में विहार करने लगीं। ग्रीष्म की सन्ध्या में नंगे पैरों उस पर चल कर, भींगी दूब का शीतल सुख वे पाना चाहती थीं । कुमार मंडल के बाहर खड़ा उन सबको ताकता रह गया। माँ के बहुत पुकारने पर भी दुर्वागन में उसने पैर नहीं बढ़ाया। माँ से रहा न गया। आप ही दौड़ी आईं और बेटे को अपने से सटा कर बोलीं :
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'यहाँ क्यों खड़ा रह गया, बेटा । चल न भीतर, देख तो दूब कैसी शीतल और शाद्वल है, कोमल है। और देख तो वे मर्मर के फव्वारे ।'
लड़का चुप रहा । बोला नहीं। माँ ने उसके गाल, चिबुक, बाल सहलाकर निहोरा किया : 'अरे चुप क्यों है ? चलन, देखन, सब कितना सुन्दर है !
'अरे बेटे के गाल गीले क्यों हैं ? आँसू
'अरे तुझे यह क्या हो गया रे लालू ?'
'तुम सब इस नन्हीं कोमल दूब को गूंधती हुई चलती हो न, तो हमको बहुत दुःख लगता है । लगता है, हमारे ऊपर ही तुम सब चल रही हो। हमारी सारी पीठ छिल गई हाँ ·!'
पीठ सहलाते हुए वहां देखा तो जगह- जगह कई पैरों के निशान पड़ गये हैं, और लगा जैसे अभी-अभी रक्त छलक आयेगा । माँ एकदम नीरव, स्तब्ध, आस हो गईं। विस्मय से परे, वे बस द्रवित होती चली गईं एक साथ विबुध, और सम्बुध हो रहीं । एक प्रतीति है, जो अपने से भी कही नहीं जाती ।
'बड़े सारे बेटे को गोदी में उठा कर क्रीड़ा-सरोवर की ओर निकल आई ।
बोली :
'चल लालू, हम सब स्नान - केलि करें सरोवर में तेरी पीठ छिल गई है न शीतल हो जायेगी ! '
'नहीं
नहीं नहीं माँ। तुम तो कुछ भी नहीं समझतीं। देखो न, साँझ की हवा में सरोवर की लहरें कैसे आनन्द में लीन हैं। कैसी शान्त बहती हुईं, जल
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