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'कह तो दिया कि हैं । बार-बार क्या कहना ! 'सिरफ़ मेरा लल्लू, और किसी का नहीं !' 'हाँ-हाँ तुम्हारा भी..! 'भी नहीं : 'मेरा ही . 'बोल न !' 'ही नहीं माँ, भी।' 'इसका तो कोई अर्थ नहीं हुआ !' 'अर्थ क्यों निकालती हो मां, जो है सो तो है ।' 'मतलब ?' 'मतलब. तुम्हारे भी हैं हम, सब के भी हैं ।' 'तो फिर हम तुम्हें नहीं रक्खेंगे।' 'भई देखो, सच्ची बता दें।' 'बता न · · ! छकाता क्यों है मुझे ?'. 'हम तो किसी के बेटे नहीं - 'अपने ही बेटे हैं।' 'मेरा और बापू का भी नहीं।'
'अच्छा तुम भी हमारी बेटी हो, बापू भी हमारे बेटे हैं, और सब अपने-अपने बेटे हैं। तुम अपनी बेटी हो, तात अपने बेटे हैं । हम अपने बेटे हैं । हम तुम दोनों के बेटे हैं। हम सब के बेटे हैं। हो गया न ठीक । और क्या चाहिये !'
मां कुछ न समझ कर भी जैसे एक गहरे बोध में डूब गई। उनके मन में प्रश्न रहा ही नहीं । बस आँसू झर रहे हैं अविरल, आँखों से। और बेटे को समूचा आंचल में समेट स्तब्ध हो गयी हैं । और छाती में वह बेटा अचल है : जो चाहें वे उसे मान लें. जो चाहें उसके साथ करें, वह समर्पित है।
साँझ बेला में महारानी-माँ कुमार को लेकर उद्यान-विहार को निकली हैं । दासियों, परिचारिकाओं से घिरी हैं। बीच में हरी दूब का एक बड़ा-सारा गोलाकार मण्डल है। उसके केन्द्र में अकृत्रिम-सा लगता एक मर्मर का क्रीड़ापर्वत है : उसमें जगह-जगह से फव्वारे छूट रहे हैं।
कुमार चुपचाप पेड़-पौधों, फूलों की शोभा निहारता अपने में तन्मय, छिटकासा चल रहा है। उसकी देखने, भोगने की अपनी दृष्टि है। हर वृक्ष, गुल्म, लता,
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