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लीला मात्र में तोड़ कर फर्श पर बिखरा देता है। आगंतुक लोकजन पलना झुलातेझुलाते उन बिखरी मुक्ता-मणियों को बटोर लेते हैं। आँखों और अंगों से छुवा कर, दुर्लभ प्रसाद की तरह उन्हें अपने पास सहेज लेते हैं।
नाकुछ समय में ही शिशु ने पालना अस्वीकार दिया। घुटनों के बल चला न चला कि, सहसा ही वह पैरों चलता दिखाई पड़ा। तोतली बोली में या तो अविराम कलरव करता है : या फिर एकदम ही मौन हो जाता है। उसकी तुतलाहट में भी लय होती है और मुख-मुद्रा में सचोट अभिव्यक्ति होती है। लगता है उसे कोई अबूझ गहरी बात कहनी है। उसकी मधुर काकली में सहसा ही कविजनों को किसी वाङ्गमय का-सा बोध होता। उनके हृदयों में नितनयी कविताएँ स्फुरित होतीं।
- - ‘अब वह चलने लगा है, तो विशाल महल के किस खण्ड या कक्ष में होगा, कहना कठिन है। पीछे दौड़ती दासियों की रखवाली उसे रुचिकर नहीं। 5 उचका कर, उन्हें ऐसी वर्जना का इंगित करता है कि बेचारी दूर खड़ी ताकती रह जाती हैं। और आप देखते-देखते जाने कहाँ चम्पत हो जाते हैं। दिन में चाहे जब बालक खो जाता है। उसकी खोज-तलाश में सारा परिकर हिल उठता है। हर बार वह नये ही स्थान में जा बैठता है । ऐसे-ऐसे कोने उसने खोज लिये हैं, जहां कोई झांकता तक नहीं। एक बार सातवें खंड के एक ऊँचे गुम्बद पर चढ़ बैठा था। वहां से उसे उतारने में प्रतिहारियों की पगतलियाँ पसीज गईं थीं। एक दिन आप पांचवें खण्ड के एक रेलिंग पर अश्वारोहण करते दिखायी पड़े थे। देखकर माँ और दासियां भय से चीख उठी थीं।
बालक के हर अवयव में अद्भुत गोलाई और सुडोलता है । उसके अंगों में स्निग्ध कोमल आभा के भंवर पड़ते रहते हैं। हर किसी का मन उसे गोदी में भर कर दुलारने को मचलता रहता है । सुन्दरी परिचारिकाओं में कुमार को गोद खिलाने की होड़ मची रहती है। पर उसे पकड़ पाना आसान नहीं। किन्तु किसी परिचारिका की गोद उसने स्वीकार ली, तो उसकी शामत आ जाती है। उसकी सुन्दर फूलों गंथी वेणी को चपल हाथ के एक ही झटके से खींच कर खोल देता है। उसके तन-बदन के सारे वसनों को ऐसे खींचता और खसोटता है, कि लज्जा और वात्सल्य से विभोर हो उसे अपने को सम्हालना कठिन हो जाता है। चाहे जब दौड़ कर किसी भी परिचारिका की चोंटी खींच, उसे अपना घोड़ा बना सवारी
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