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________________ ५८ महारानी माँ की पलकें मुँदती चली जाती हैं। जाने कैसी आनन्द-वेदना की समाधि मानो मूर्च्छित हो रहती हैं। शिशु वर्द्धमान के अलौकिक सौन्दर्य और अनोखी क्रीड़ाओं की वार्ता हवाओं में गूंजने लगीं। वैशाली और उसके पड़ोसी जनपदों तक ही वह नहीं रुकी, सारे आर्यावर्त में नव वसन्त के मलयानिल की तरह व्याप गई । लोक में वात्सल्य की ऐसी लहर फैली, कि केवल वैशाली के ही नहीं, भरत क्षेत्र के दूर-देशान्तरों और द्वीपों तक के आबाल-वृद्ध वनिता वर्षा की नदियों की तरह नन्द्यावर्त - प्रासाद के द्वारों पर उमड़ने लगे । राजमहल की आभिजात्य मर्यादा आपोआप टूट गई । बालक को दुलराने और झूलना झुलाने के लिए सारे दिन नर-नारियों और बालकों की एक धारा-सी बहती रहती । एक और भी अद्भुत घटना घटी। जो भी मानव-जन उस अलिन्द के वातावरण में आते थे, उन्हें वहाँ गहरे सुखद स्पन्दनों की अनुभूति होती । चारों ओर से ऊर्मिल होते एक अत्यन्त मृदु ज्वार में, उनके तन-मन स्तब्ध और शान्त हो जाते । उन्हें एक अजीब निर्विकारता और निर्विचारता का अनुभव होता । हृदय चंदन-सा शीतल हो जाता । स्नायुओं में ऐसे सुखद स्पर्श का संचार होता, कि सर्व के प्रति एक निर्लक्ष्य प्रेम से वे आकुल-व्याकुल हो उठते । यह अनुभूति धीरे-धीरे कुछ इस तरह लोक में व्याप चली, कि वन्य पशु-पंखी तक एक अनिर्वार आकर्षण से खिचे, निर्बाध शिशु के पालने तक पहुँच जाते । कोई वर्जन संभव नहीं रह गया था : वे विभोर अपनी जीभों और आँखों के रोओं से बालक का रभस करने लग जाते । आसन्न प्रसवा माँएँ इस सुख-संचार से ऐसी बेसुध हो जातीं, कि बिना प्रसवशूल के ही अचानक वे अर्भक का प्रजनन कर देतीं । दूर-दूरान्त देशों के कवि और यात्री दुर्गम पवंत और समुद्र लांघकर इस विचित्र बालक को देखने आते । उसके पालने के पास बैठ कर, उसके विवरण लिखते काव्य रचते, तत्काल नवसंगीत रच कर गान करते । रात के पिछले पहरों में जाने कौन आकर, बालक के सिराहाने कोई मणिकरण्डक धर जाता है । उसमें फेन से हलके अंशुक और आभरण होते हैं । दिव्य स्वाद वाले मधुपर्क और सुगंधित अंगराग होते हैं । कहा जाता है, बालक के लिए ये भोग सामग्रियाँ नाना देवलोकों से आती रहती हैं। इस शिशु को तो सारे मौसम एक-से हैं । वसन धारण करते ही उतार फेंकता है । मुक्ता-मालाओं और पहोंचियों से थोड़ी देर हर्ष की किलकारियों के साथ खेलता है। फिर चाहे जब उन्हें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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