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________________ ५४ प्रकृत स्फटिक शिला की आभा अमन्द रही है। निरन्तर देवों के पूजाभिषेक से यह पवित्र और सुगन्धित रहती है । इस अर्ध चन्द्राकार शिला पर स्वयम् काल मानो महानील सिंहासन बन कर अवस्थित है । सौधर्मेन्द्र ने बड़ी ही मृदुता और सावधानी से शिशु प्रभु को उस पर विराजमान किया। आसपास का तमाम अन्तरिक्ष सहस्रों देव-देवांगनाओं, और नर्तित अप्सराओं से व्याप्त हो गया है । ' लोकान्तिक क्षीरसमुद्र से देवगण एक हज़ार आठ कलश भर लाये हैं । सौधर्मेन्द्र ने प्रथम विशाल रत्नाभ स्वर्ण कलश उठा कर बाल तीर्थंकर के मस्तक पर अभिषेक की जलधारा बरसायी । किसलय से भी कोमल नन्हे से प्रभु : और एक हज़ार आठ कलशों से उनका अभिषेक ! इन्द्र शंका और भय से काँप - काँप आया उसके हाथ का अभिषेक करता कलश थरथराने लगा । जलधारा भंग होने लगी । : शिशु तीर्थंकर इन्द्र की शंका का बोध कर मुस्करा दिये । अपने बायें पैर के अंगूठे से उन्होंने सहज लीला भाव से सुमेरु पर्वत को किंचित् दबा दिया । सुमेरु के शिखर झुक गये । सारा पर्वत कम्पायमान होकर समुद्र की तरह हिल्लोलित होने लगा । कालोदधि समुद्र, तट की मर्यादा तोड़कर उछलने लगा । महाकालेश्वर ने अपनी शक्ति का परिचय दिया । निःशंक होकर, परम उल्लास से जय - ध्वनियाँ करते हुए सैकड़ों देवों, इन्द्रों और माहेन्द्रों ने अनवरत जलधाराओं से भगवान का अभिषेक किया। उस अभिषेक जल से प्रवाहित कई नदियों ने स्वर्ग के पटलों को पृथ्वी की आँचल कोर से बाँध दिया । अति मृदु सुरभित अंशुकों से शिशु भगवान का अंग लुंछन करके इन्द्र ने अनादि रत्न-करण्डकों में सुरक्षित वस्त्राभूषणों से उन्हें अलंकृत कर दिया । 'लौट कर इन्द्राणी ने विश्व जननी त्रिशला को भगवान के स्नान-गन्धोदक की हलकी-सी बौछार द्वारा अवस्वापिनी निद्रा से जगा दिया । प्रभु को मां की में थमा दिया । फिर जगदीश्वर को गोद में लिये बैठी जगदम्बा के चरणों में, स्वर्गों की अधीश्वरी निछावर हो गई । 'देख रहा हूँ : उसी क्षण देवों, इन्द्रों तथा अपने परिजनों और पार्षदों के साथ महाराज सिद्धार्थ, प्रसूति कक्ष के द्वार पर उपस्थित हुए । हर्ष - गद्गद् कण्ठ से राजा बोले : 'अमर और मर्त्य साक्षी हैं, इस बालक के गर्भावतरण के साथ ही, हमारी वैशाली का वैभव, दिन दूना और रात चौगुना वर्द्धमान होता गया है। राजमहल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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