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________________ ५३ में सुला दिया। फिर एक मायामय शिशु चुपचाप उनके उरोज तट पर लिटा दिया । और शिशु भगवान को उसने अपनी हीरक-कंकणों से झलमलाती बाँहों में उठा लिया । उसकी दिव्य देह के सूक्ष्मतम कोमलतम परमाणु, इस स्पर्श के मार्दव में पिघल गये । शक्रेन्द्र की परिमल भरी सुगोल बाहुओं का रभस-सुख, इस स्पर्श की विपुलता और शुचिता में पराजित हो गया । शिशुं प्रभु को गोदी में भर इन्द्राणी चली, तो लगा कि उस छोटे-से ज्योतिर्मय पिण्ड को अपने में समाने को उसकी गोदी गहराती चली जा रही है । - 1 इन्द्र ने नतमाथ होकर, 'जय त्रैलोक्येश्वर उच्चरित करते हुए, शिशु को अपनी बाँहों में झेला। उसकी दो आँखों में प्रभु का सौन्दर्य समा न सका । अंग-अंग में सहस्रों चक्षु खोलकर शक्रेन्द्र बालक भगवान की रूपाभा को निहारता रह गया । 'ठीक अपनी खुली आँखों के सामने यह सारा दृश्य देख रहा हूँ । इन्द्रियाँ अपने से उत्तीर्ण होकर इस दिव्य लीला के अवबोधन से सार्थक हो गई हैं । 'देख रहा हूँ, अपनी विशाल देव सृष्टि के साथ सौधर्मेन्द्र, तीर्थंकर शिशु को ऐरावत हाथी पर, अपनी केयूर - दीपित बाहों में उठाये, सुमेरु पर्वत पर ले जा रहा है । ऐशान इन्द्र प्रभु पर श्वेत छत्र ताने है। सनत्कुमार और माहेन्द्र क्षीरसागर की लहरों जैसे चँवर उन पर ढोल रहे हैं। स्वर्गों की बहुरंगिणी सेनाओं और दिव्य वाद्यों की रागिनियों से आकाशमार्ग विह्वल हो उठा है । पृथ्वी के छोर, और स्वर्गों की तटवेदी के ठीक बीचोंबीच अवस्थित है सुमेरु पर्वत । इसकी ऊँचाई और विस्तार का माप नहीं । यह सृष्टि का अनादिकालीन पर्वत है । अनन्त कालों में कितने ही उदयों और प्रलयों का यह अविचल साक्षी रहा है । इसके कूटों पर शोभित शाश्वत उपवनों और सरोवरों में नित्य देव-देवांगना क्रीड़ा करने को आते रहते हैं । क्रमशः यह शोभायात्रा ज्योतिष पटल का उल्लंघन कर ऊपर जाने लगी । ताराखचित आकाश की रत्निम वनानियों को वे पार कर रहे हैं। सुमेरु पर्वत की उपत्यका में पहुँच कर पहले जुलूस भद्रशाल महावन की सघन पन्निम छायाओं में से गुजरा। फिर उसकी मेखला में स्थित नन्दनवन की घनी सुरभित मन्दारबीथियों को पार किया। उसके उपरान्त सौमनस महावनी के चित्रा - बेलियों से छाये काम सरोवरों को पार कर यात्रा ने पाण्डुक वन में प्रवेश किया । और वहाँ से स्वर्गतट-चुम्बी पाण्डुक - शिला पर आरोहण किया । अनन्त कालों में इस 1 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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