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________________ ५२ इन्द्र उठकर सीधे अपने प्रांगण के मानस्तम्भ के निकट गया। शीर्ष पर चतुर्मुख अर्हत् प्रतिमा से प्रभास्वर, उत्तुंग मणिजटित मानस्तम्भ के एक तोरण में टॅगा, विशाल रत्न करण्डक उसने उतारा । अनादि-निधन है यह करण्डक । और अनन्त काल से इसमें बाल-तीर्थंकर के अविनश्वर वस्त्राभूषण संजोकर रक्खे हुए हैं। उस करण्डक को दोनों भुजाओं में समेट कर सौधर्मेन्द्र धवल पर्वतकूट के समान अपने ऐरावत हाथी पर इंद्राणी सहित सवार हो गया। ___.. एक निमिष को मेरा पलक टिमकार-सा हुआ। और अगले ही क्षण देख रहा हूँ : अन्तरिक्ष में अन्तहीन नीलम की सीढ़ियां सी खुलती जा रही हैं। और उन पर से उतर कर सोलहों स्वर्ग अपने समस्त वैभव के साथ पृथ्वी की ओर धावमान है। सहस्रों देव-देवांगनाओं और अप्सराओं की अर्ध-मंडलाकार पंक्तियां, दिव्य वाद्यों के तुमुल घोष और जयकारों के बीच, नृत्य करती हुई आकाश के पटलों में आरपार छा गई हैं। जैसे विराट नीलिमा के पट पर अनन्त-रंगी रत्न-प्रभाओं का कोई जीवन्त चित्र किसी अदृश्य तूलिका से उभरता चला आ रहा है। सारा लोकाकाश देव-दुंदुभियों के प्रचण्ड घोष से थर्रा रहा है। · · ·इसी बीच जाने कब मैं फिर धरातल पर लौट आया हूँ। ब्रह्माण्ड में कम्पन की लहरें दौड़ रही हैं । पृथ्वी अपने पर्वतीय स्तनों को दोलायित करती हुई, ऊपर से उतरती देव-सृष्टि का स्वागत कर रही है। क्षत्रिय-कुण्डपुर के 'नन्द्यावर्त प्रासाद' की छतें और गुम्बद, कल्पवृक्षों के बरसते फूलों से छा गये हैं। उसके कंगूरों, वायातनों, और रेलिंगों पर अप्सराओं की पाँतें नृत्य कर रही हैं। उसके गोपुर और तोरण गन्धर्वो के समवेत संगीतवाद्यों से गुंजित हैं। हजारों देव-देवांगनाएँ केशरिया आभा बिखेरते हुए राजप्रांगण में अविराम जयकार कर रहे हैं । महादेवी त्रिशला के वातायन तले ऐरावत हाथी ने शुण्ड उठा कर किलकारी करते हुए प्रणाम किया। इन्द्राणी ने वातायन द्वार से महारानी के कक्ष में प्रवेश किया। शची ने लेटी हुई मानवी माँ के वक्ष-पार्श्व में तीर्थंकर-शिशु को देखा : हिल्लोलित समुद्र की फेनचूड़ा पर झलमलाता मुक्ताफल । सारे कक्ष में जैसे ज्योति के भंवर पड़ रहे हैं । पार्थिव माँ के इस वत्सल सौन्दर्य को देखकर देवेश्वरी के मन स्वर्गों के सारे ऐश्वर्य और सुखभोग फीके पड़ गये । शची का अंग-अंग किसी अपूर्व स्पर्श की पुलकों से तरल हो आया। उसने हलके से एक महीन मोतियों का विजन झलकर मां को अवस्वापिनी निद्रा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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