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अनजाने राशि-राशि जीव-जन्तुओं की सृष्टि, अभय, अबाध, आनन्दित, मेरे अंग-अंग में लताओं-सी लिपट गई। · · मानो अखिल चराचर मेरे भीतर सुरक्षित, अघात्य हो गया है : और उसके भीतर मैं जैसे अमर्त्य हो गई हूँ। अपनी शिराओं में संचरित होते अमृत के स्रोतों को मैंने देखा। मैं उनमें घुलती ही चली गई। और फिर नहीं रह गई. । ।
लौटकर आई तो इतनी दुरन्त और चंचल हो गई थी, कि क्लीना को गोद में भर जाने कितने चुम्बनों से उसे ढाँक दिया। जुड़वाँ-सी सट कर हम दोनों ही, सारथी के आसन पर बैठ गईं। और चार हाथों में संचरित चार वल्गाओं से रथ हाँकती हुई, हम सायान्ह में द्वार पर आ लगीं। ___ न जाते, न लौटते, किसी ने हमें देखा। इस निर्बाधता के साम्राज्य की अधीश्वरी पा रही हूँ अपने को। पर समझ से परे लगता है, इसका रहस्य। इसे थाहने को जी नहीं चाहता। केवल इसमें खो जाना चाहती हूँ।
रात के पहर, मुझ पर से पानी की पर्तों-से सरकते जा रहे हैं। नींद हिरन हो गई है। जी की इस उमड़न और बेचैनी में अकेली हो जाना चाहती हूँ। उषीर के विजन झलती कुमारियों से कह दिया है, जाकर विश्राम करें।
कोमल से कोमलतर उपधानों को छाती से सटा कर लेटती हूँ। पर सब व्यर्थ । किसी बाहरी साधन की स्निग्धता और मृदुता में जी की इस कलक को सहारा नहीं। मंदार के गजरे, अनेक बारीक फूलों के आभरण, फेन सा हलका अंशुक, सब फर्श पर फेंक दिये । शैया के गहराव में गुड़ी-मुड़ी होती चली जा रही हूँ। शरीर के कोश भी जैसे एक-एक कर उतरते जा रहे हैं। ___.. 'ओ मेरे शरीर के शरीर, मेरी देह के सारांश, तुम्हें देखना चाहती हूँ ! मेरे अन्तिम और चरम शरीर के भीतर जाने कहाँ छुपे हो तुम, ओ अतिथि, ओ अज्ञात। ओ मेरे अन्तिम परिचय · ·! चिर परिचित, फिर भी अपरिचित । मेरी ममता की मूरत । - - __अपने ढेर-ढेर आलुलायित कुन्तलों के शीतल, सुगन्धित अन्धकार में समूची सिमट गई। वलयित ग्रंथीभूत अंगों के भीतर, मेरा केशाविल मुख, छाती में विसर्जित हो गया। भीतर से भीतर के भीतर में संक्रान्त होती चली गई। एकएक कर जाने कितनी पंखुरियाँ खुलती गईं। इस अमूल पद्म के द्रह में देख रही
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