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________________ हूँ : एक पारदर्शी रोशनी की झिल्लिम जाली का हृदयाकार करण्डक तैर रहा है । निर्मल अस्पृष्ट । रक्त- माँस के भीतर होकर भी, उससे उत्तीर्ण, उसका - सार तत्व । और उस जाली के भीतर यह कौन स्पन्दित है ? एक आरपार झिलमिलाती, बन्द सीप में कम्पित मोती । और मोती के भीतर समुद्र । एक उन्मुक्त ज्योति पुज । मानवीय अवयवों का एक सम्पुटित सौन्दर्य - मुकुल । आओ न मेरी बाँहों में, मेरी गोद में, मेरे ओंठ जनम-जनम से तुम्हें चूमने को तरस रहे हैं। ४८ 'चूमने को मेरे ओंठ उमग आये । सचेत होकर अनुभव किया, एक चुम्बन हवा में तैर रहा है । ‘मेरे ओंठ उसके आसपास मंडरा रहे हैं । पर वह पकड़ाई से बाहर है । मेरा रोम-रोम जाने कैसी ऊर्मिलता से, निरामिष पेशलता से स्पर्शित है, बिचुम्बित' है । मेरे एक मात्र अपने ..! 1 • और जाने कब, Jain Educationa International मैं गाढ़ी नींद में डूब गई । For Personal and Private Use Only 0 www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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