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अविलम्ब मैं रथ पर जा बैठी। और क्लीना ने वल्गा को एक झटका दिया, और रथ हवा पर आरोहण करने लगा। एक अजस्र वेग में, जाने कब कैसे, जाने कितने ही वन-उपवन, नदियाँ, अरण्य, पर्वत पार होते चले गये। चिरकाल से अगम्य कहा जाता, रुद्राक्ष-कांतार भी हम पार कर गये। उत्तुंग, दुर्द्धर्ष हिमवान की उपत्यका में जाकर, रथ आपोआप ही स्तम्भित हो गया।
'क्लींकारी, यहीं रहो तुम, · · · मैं अभी आती हूँ. . . !' 'माँ' . 'अकेली?' 'नहीं, मैं अकेली नहीं हूँ।'
जाने कितनी दुर्गम बीहड़ पहाड़ियों, चट्टानों, झाड़-झंखाड़ों को मैं पार करती ही चली गई। त्रिशला नहीं : सूर्यवंश की आद्या क्षत्राणी । सूर्या।
- - एक प्रचण्ड प्रपात के ब्रह्मांडीय घोष से आकृष्ट, एक महागुफा के हिमावृत द्वार पर मैंने अपने को खड़ा पाया। अफाट धवलिमा के बीच झाँकते उस महान्धकार की नीलिमा में, कैसा दुनिवार सम्मोहन है। मैं अब खड़ी नहीं रह सकती ।
एक उद्ग्रीव विशाल हिमानी चट्टान पर जाकर मैं लेट गयी । जाने कब मेरी आँखें मिच गईं। देखा, अपने उस स्वरूप को। निरावरण प्रकृत मैं, उस हिमानी के भीतर से ही उभर आयी-सी वहाँ प्रलम्बायमान हूँ। उन्मुक्त फैली हैं, निर्गन्थ, मेरी बाहुएँ, मेरी जंघाएँ। मानव के पद-संचार से परे है यह प्रदेश। मेरे ऊपर छाया है, निःसीम उज्ज्वल नग्न आकाश। ____एक निगूढ मर्म-पीड़ा से उद्भिन्न होते जा रहे हैं मेरे वक्षोज। ऊपर और ऊपर...और ऊपर। सहसा ही एक चिंघाड़ से अन्तरिक्ष थर्रा उठे। मेरी आनन्दवेदना अपार हो रही है। • पल मात्र में ही चेतना डूब गई। किसी अन्तर्तम बोध के स्तर पर मैंने देखा :
एक प्रचण्ड सुवर्ण सिंह मेरे अंग-अंग को सहलाता हुआ, अवश समर्पित होकर, मेरे एक उरोज को पीने लगा। इस दंश की कठोरता, क्रूरता, सारे मार्दवों से अधिक मधुर है, आल्हादक है। उसकी आदिम हिंस्रता, मेरे निःशेष उत्सर्गित उरोज में चुक गई है। · · मैं जैसे दूध का समुद्र बन कर उमड़ पड़ी। और उस आप्लावन में ऊभचूभ होते मेरे दूसरे स्तन को पी रहा है, एक चन्द्रमा-सा उजला वृषभ। · · ·और उन दोनों को ढाँपती मेरी वाहओं के वलय में जाने कितनी गारों और हरिणों की टुकुर-टकुर निहारती आँखें। और उन आँखों में, जाने
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