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___.. ऐसी एक निर्बन्ध संवासना, जो कि शुद्ध क्रिया है। भाव, विचार, विकल्प से परे, बस जो मात्र होना है। सोच नहीं, अनुभव नहीं, मात्र जिसे पूरी होना चाहिये। अभी, यहाँ, इसी क्षण। इसकी कल्पना मेरे मानुषिक मन में संभव नहीं। मुझसे परे की यह कोई दुर्दान्त महाशक्ति है, स्वायत्त इच्छा है, स्वयम्भु क्रिया है। ऊर्जा के इस महाप्रवाह में, मैं कोई नहीं, मेरा निर्णय कोई अर्थ नहीं रखता।
· · 'नहीं, अब और रुक नहीं सकती। जाना होगा, तत्काल, इसी क्षण । कहाँ • • • ? नहीं मालूम। ____दिक्कुमारियो, सब चली जाओ यहाँ से। मैं तुम्हारे दिगन्तों की मर्यादा में नहीं हूँ, और अब · · !'
'जो आज्ञा महादेवी! कुछ और आदेश?'
'श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, लक्ष्मी, बुद्धि, विभूति, तुम सब जाओ। मेरे पास रहे अकेली वह तन्वंगी कन्या क्लीं. . . !"
निमिष मात्र में सब कुमारियाँ वहाँ से चली गईं। 'क्लींकारी कामरूपिण्य · · ·! देवी, आओ मेरे पास !' 'बोलो, माँ...' 'वन-विहार को चलो मेरे साथ । तुम्हें मेरे रथ का सारथ्य करना होगा !' 'और कौन चलेगा? संरक्षक अश्वारोही ?' 'कोई नहीं : केवल मैं और तुम !' 'महाराज की अनुमति ?' 'सारी आज्ञाओं से ऊपर है यह आज्ञा, अनिर्वार !' 'माँ' . .!' 'क्लींकारी, अन्तःपुर के उत्तरी गुप्त द्वार पर रथ प्रस्तुत है।' 'कहाँ से कैसे, कैसे ?' 'मैं देख रही हूँ। वह वहाँ है ! चलो।'
मैं नहीं, कोई तीसरी ही क्रिया-शक्ति मुझमें से बोल रही है। कक्ष से द्वार तक अदीठ, निर्बाध मैं चली आयी। मेरा 'अम्बर-तिलक' नामा रथ वहाँ प्रतीक्षा में था ।
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