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________________ चली जाती हूँ। इनके समवेत संगीत-नृत्यों में, कितनी ही रागिनियों, लयों, तालों के मूर्त स्वरूप आँखों के सामने चित्रित हो जाते हैं। ऐसा लगता है जैसे सृष्टि के केन्द्र में, किसी विशाल अश्वत्थ की छाया में लेटी हूँ। एक श्वेत तन्द्रिलता में बही जा रही हूँ। और आसपास कितने ही देशकाल, वीणा की संगीत सुरावलियों में आरोहित-अवरोहित होते रहते हैं । ___ . . कभी-कभी एकाएक, सामने के दीवाल-दर्पण में अपने प्रतिबिम्ब पर निगाह चली जाती है । लगता है, मेरा चेहरा नहीं है, हिरण्यवती के सुदूर दिगन्त पर फूटती उषा की स्वार्णाभा है। अभी-अभी सूर्य की रक्तिम कोर झाँकने को है। मेरे हृदय में जैसे वह कहीं कसक रही है । कैसी विदग्ध मधुर कसक है। सारा शरीर ऐसा लगता है, जैसे पीले मकरन्द के सरोवर में नहा कर, निर्वसन उठी हूँ। प्रत्येक अवयव में एक द्वाभा-सी छिटकी है। भोजन, वसन, सुगन्ध, शृंगार, किसी भी भोग की कोई ईहा मन में नहीं जागती। कोई चाव नहीं, चुनाव नहीं। एक सहज तृप्ति भीतर से ही उमड़ती रहती है। · · वातायन पर कभी-कभी जा बैठती हूँ। दूरियों में फैले भू, धु, जल, वनस्पति के प्रान्तर ऐसे लगते हैं, जैसे सर्वत्र मेरा ही आँचल फैला हो। पांचों मेरु जैसे मेरे उरोजों में आबद्ध हैं। और उनके बीच के गहराव में, सारी नदियाँ एक साथ समुद्र में मिल रही हैं। मेरी जंघाओं की घाटियों में, विशाल पशु-सृष्टियां समायीं हैं। उरु-गुहा में रह-रह कर कोई केसरी गरज उठता है। कुछ भी अपना या पराया नहीं लगता। सभी कुछ अपना है : सभी कुछ पराया है। कोई ममतामाया अलग से नहीं : कण-कण के साथ, घर पर हूँ। फिर भी एकदम अकेली, अलग, किसी अज्ञात तट पर निश्चल खड़ी हूँ। और केवल देख रही हूँ । • • पर कल आधी रात से अचानक यह कैसी उत्कट संबासना, मेरे प्रात्र में सुलग उठी है। यह कोपल मसृण सुख-शैया, यह परिचर्या, यह दिव्य ऐश्वर्य, ये रत्नों की दीवारें, ये महलों के परकोट मुझे कारागार-से लग रहे हैं। मेरे रक्त की बूंद-बूंद में यह कैसा दुर्दर्ष आलोड़न है, उत्तोलन है। अंग-अंग में यह कैसी कसमसाहट है। ऐसी उद्दाम है यह उत्कंठा, कि मेरी नस-नस इसके असह्य उखेलन से कांप रही है। कई महीनों से सारी इच्छाएँ सो गयी हैं। पर मेरे अंतिम प्राण की यह महावासना, हर शारीरिक, ऐन्द्रिक इच्छा से परे की है। एक दुर्दान्त अभीप्सा, जिसमें सारी इच्छाएं एकीभूत और समाहित हैं। एकमेव, एकात्र, अनिर्वार महा इच्छा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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