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देख-जान, सुन पाते हैं, उससे परे भी बहुत कुछ है। स्वर्गों के अकथ सुख हैं, वैभव हैं : नरकों की अकथ यातनाएँ हैं । संयोगवश सामने आने पर ही हम उन्हें अनुभव करते हैं। नहीं तो पार नहीं है पदार्थ का।'
'हमारा ज्ञान तो, माना, सीमित है, माँ। पर कोई ऐसा ज्ञानी है भी कहीं, जो हर समय सब कुछ जानता है, देखता है ?'
'वही तो तेरे गर्भ में आया है, लाली। पूर्णज्ञानी, केवलज्ञानी। इसी से तो, हमारे ज्ञान से परे, अनन्त ज्ञान-क्षेत्रों की वस्तुएँ यहाँ प्रकट हुई हैं। . . '
यों ही पूछ लिया था माँ से। पर एक अचल प्रतीति मन में सदा बनी रहती है। भीतर जाने कितने रहस्यों की मंजूषाएँ खुलती रहती हैं। सब-कुछ स्वीकारते ही बनता है।
ये दिक्कुमारियाँ नाना प्रकार की अजूबा वस्तुएँ लायीं हैं मेरे लिए। एक लड़की ने मुझे मर्कतमणि की कंघी दी है। उससे बाल सँवारती हूँ, तो केशों में आपोआप ही, विचित्र वनस्पतियों की गन्ध बस जाती है। एक कन्या ने कोई ऐसी पारदर्शी शिला दी है, जिसमें एक झील सदा लहराती रहती है। किसी ने बड़ी सारी सीप के करण्डक में एक ऐसा मुक्ताफल दिया है, जिसमें पूर्ण चन्द्रोदय के तले आलोड़ित जीवन्त समुद्र की अनुभूति होती है। मेरे हाथों में इन्होंने ऐसे वलय पहना दिये हैं, और पैरों में ऐसे नपुर, कि औचक ही चाहे जब इनमें से संगीत और नृत्य की सूक्ष्म ध्वनियाँ सुनाई पड़ने लगती हैं।
- दिन, सप्ताह, मास बेमालूम से बीतते जा रहे हैं। मुझे तो मानो कुछ करना ही नहीं पड़ता। करने की इच्छा भी नहीं होती। जो आवश्यक है, वह अपने आप होता रहता है। सौन्दर्य की तरंगों-सी ये लड़कियाँ, सदा मेरी नाना सेवायें करती दिखायी पड़ती हैं। विपुल व्यंजनों से भरे स्वर्ण थाल सामने धर देती हैं। एकाध खीर का चम्मच, किसी फल की एक फाँक, एकाध द्राक्ष । बस, तृप्त हो जाती हैं। ताम्बूल लिये सामने खड़ी लड़की, डाल की नोक पर बैठे तोतेसी लगती है। पान के स्वाद में वन-सरसी पर छायी लताओं की शीतलता अनुभूत होती है। ये सब मिलकर स्नान, उबटन, प्रसाधन करती हैं। तब जैसे किसी गंध-सरोवर में सुषुप्त हो जाती हूँ। केश-विन्यास करती हुई, जाने कितनी पहेलियाँ पूछ, ये मेरा मनोविनोद करती हैं। इन पहेलियों में कई प्रश्नों के उत्तर अपने आप मेरे मन में स्फुरित हो जाते हैं। जैसे ज्ञान की राशियाँ खुल रही हों। ये कहानियाँ सुनाती हैं, तो कितने ही जन्मान्तरों के सम्वेदनों में एक साथ जीती
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