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ग्रन्थिभेद की रात
'प्रतीक्षा करो, प्रियकारिणी' : ये शब्द उसी क्षण से मेरे आरपार गूंज रहे हैं। मेरा अस्तित्व स्वयम् ही जैसे बोल उठा है। याद आ रहा है, जिस दिन से होश में आयी, अपने को निरन्तर जाने किस अज्ञात की प्रतीक्षा करते पाया है। यही मेरे प्राण का एकमेव सम्वेदन और आनन्द रहा है। इसी पुकार से विवश होकर तो जाने कहाँ-कहाँ भटकी हूँ । जाने क्या-क्या खोजती फिरी हूँ।
· · ·और इसी खोज की राह में एकाएक पाया, कि सब मुझे प्रियकारिणी कहने लगे हैं । राजपुत्री की तरह, दुर्लभ मैं कभी नहीं रह सकी । समग्र जनगण की बेटी होकर ही मानो जन्मी थी। इसी से बचपन से ही, वैशाली के जनगण के बीच अबाध विचरने लगी थी। धनी-निर्धन सभी के घर-आँगन समान रूप से मेरी दुरन्त बाल-लीला के प्रांगण हो रहे । राजमहल से लगा कर, वन के पहाड़, पेड़ पंछी, नदी, घास-पात, फूल-पत्ती, कीट-पतंग सभी के प्रति मेरे जी में एक-सा प्यार उमड़ता रहता था । कई बार हिमालय की नीरव चोटी से डाक सुनायी पड़ी है : 'प्रियकारिणी !'
और यहाँ ससुराल में आकर पाया, कोई मुझे त्रिशला कह कर नहीं पुकारता । सभी के ओठों से एक ही नाम निकलता है : 'प्रियकारिणी !' ऐसा क्या है मुझमें कि अकारण ही सब की यों प्रिय होकर रह गयी हूँ। ,,
· · · रत्नों की वर्षा अब विरल हो गयी है । बहुत महीन, कई हलके हलके रंगों की नीहार दूरान्तों तक व्याप्त है । और मैं इन नानारंगी आभाओं के प्रान्तरो में अकेली विचर रही हूँ। निरी नग्न और अन्तहीन प्रतीक्षा! • • “मैं नहीं।
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