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एकाएक पश्चिम में एक प्रचण्ड विस्फोट के साथ बिजली कड़की । विद्युत की एक सीली शकाला मेरे मेरुदण्ड में लहरा गयी। मन्द्र गभीर घन-गर्जन में घिरती चली जा रही हैं । यह क्या देख रही हूँ। बहुसाल-वन के शिखरों के पार, हिरण्यवती की लहरों पर सुवर्ण की रज बरस रही है। देखते-देखते वह अपसारित हो चली। और हिरण्य के एक विशाल प्रभामण्डल में आकृत हो गई । एक दूसरा ही सूर्य हो जैसे, जो अस्त होना नहीं जानता । सान्ध्य नदी की शाम्त लहरों पर गतिमान वह प्रभामण्डल, मेरी और चला आ रहा है । ___.. कब आँखें मिच गयीं, नहीं मालूम । कब इस गगन-अटारी के शयनकक्ष में आकर लेट गई, सो भी नहीं मालूम । कुंद, कचनार, बेला और पारिजात के विपुल फूलों और मालाओं से आवृत्त इस पद्मराग मणि के गुलाबी पर्यंक पर अकेली लेटी हूँ । गवाक्ष की जाली में, पानी भरी एक गर्भित बदली के भीतर, अन्तिम किरण नाग-चम्पा के एक फूल-सी ठहरी है । · देखते-देखते वह भी झर गई । वहाँ जामली अँधेरा उभर रहा है । ___ इस विशाल कक्ष का रत्न-परिच्छद कितना कोमल और तरल हो आया है। बहुरंगी मणियों की मीनाकारी और चित्रसारी से खचित छत और दीवारें कितनी उज्जीवित हो मुझे ताक रही हैं । उनमें जड़े विशाल हीरक दर्पणों में यह एक ही कक्ष सहस्रों कक्षों में खुलता जा रहा है । दोनों ओर अन्तहीन पर्यकों पर, अनन्त त्रिशलाएँ लेटी हैं। मैं कौन हूँ इनमें, पहचानना कठिन हो गया है । हंसगर्भ शिला में से तराशा हुआ वह सिंहासन, लोहिताक्ष मणि के वे भद्रासन, माणिक
और पन्नों की नौकियाँ, उन पर पुखराज और ज्योतिरस की झारियाँ, वैडूर्य के चषकों में प्रियंशु और सहकार फूलों की सज्जा : इन सब में जैसे कई-कई आँखें खुल कर मेरी ओर एकटक देख रही हैं । उस कोने में पड़ा है, कुण्डीकृत नाग-सा वह रहस्यमय करण्डक, जो वह भीलनी लायी थी। मेरे न चाहते भी, तरह-तरह की इच्छा-मणियाँ उसमें से तैर आती हैं। और फिर विफल होकर स्यमन्तक रत्न की इस लहराविल फर्श में लीन हो जाती हैं। __ऊपर वहाँ पारस्य देश की पारसमणि में से तराशी हुई गन्धकुटी में अर्हत् की जलकान्त प्रतिमा आसन से उत्थान करती दीख रही है। उसकी पाद-कर्णिका में अवस्थित निष्कम्प दीपशिखा, अनायास संचारित है। एक लौ, दोनों ओर के दर्पणों में हजारों पंक्तियों में मंडलाकार मेरे चहुँ ओर घूमती-सी जैसे मेरी आरती उतार रही है। कालागुरु और दशांग धूप की पवित्र सुवास में कोई निराकारता, कहीं आकार धारण कर रही है।
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