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________________ आज लगभग छह महीने हो गये हैं। चाहे जब इसी तरह रत्नों की वर्षा होने लगती है । तरल जलधारों में बरस कर, ये रंगीन द्रव, पृथ्वी छूते ही कई-कई पहलुओं वाली जग-मगाती शिलाएँ, रत्न-खण्ड, भास्वर कणिकाएँ, चमकीली धूल हो जाते हैं । सुनती हूँ, सारे जनपद में लोगों ने इतने रन बटोर लिये हैं, कि उनके घरों में इन्हें रखने की अब जगह नहीं रह गई है। नागरिक अब इनकी परवाह तक नहीं करते, और जाने कब ये फिर माटी हो जाते हैं। वैशाली की हर कन्या, इन दिनों रत्न के दर्पण में ही अपना शृंगार-प्रसाधन करती है। और हमारे इस नंद्यावर्त महल में तो हर क्षण एक चमत्कार हो गया है। महीनों की इस रत्न-वर्षा से, महल का एक-एक कक्ष दिन-रात तरल-रत्नाभा में तैरता रहता है। और जाने कितनी विचित्र सुगन्धे, स्पर्श और ध्वनियाँ, इन द्रव्य-तरंगों में महसूस होती रहती हैं। · · दीवारों पर आपोआप ही रत्निम रंगों के दिव्य चित्र अंकित हो गये हैं। इन चित्रों की आकृतियाँ और भाव इतने सूक्ष्म, जटिल और बहुआयामी हैं, कि कुछ भी समझ में नहीं आता, बस एक घनीभूत, अविरल सौन्दर्यानुभूति होती रहती है। आये दिन राज सभा में द्वीपान्तरों और देशान्तरों के वणिक, मनिहार और मल्लाह महाराज को अकारण ही अजूबा वस्तुएँ भेंट कर जाते हैं। जिनका मूल्य आँकना मानवीय बुद्धि से परे हो गया है। अभी उस दिन पूर्व के अगम्य अरण्य की एक भीलनी आई थी। वह एक विचित्र रत्न-करण्डक दे गयी : कहती थी, इसे खोलें नहीं, बस कक्ष के कोने में रक्खे रहें, इसमें बसे हैं नागेन्द्र। हर इच्छा के उत्तर में सामने एक मणि तेरा देते हैं। इसी सामने के कक्ष में वह करण्डक रखा है : इस क्रीडा-कौतूहल से खेलते अब मन में कोई इच्छा ही नहीं बची। नागेन्द्र जाने क्या सोचते होंगे ? ऐसे ही जाने कितनी धरती में गड़ी निधियाँ, वैभव-विलास की सामग्रियों से भरी अपार्थिव मंजूषाएँ, अगम्य समुद्रों के मल्लाहों द्वारा लाये गये अपूर्व विशाल मुक्ताओं की झारियाँ और चषक । विचित्र रंगीन धातुओं के भाण्ड, प्रकृत प्रभास्वर शिलाओं के भद्रासन, सिंहासन, पर्यंक और पालकियाँ। हमारे वन-उपवन और इस राजोद्यान के केलि-सरोवरों में कमलों की पाँखुरियाँ, सुगन्ध और पराग तक जैसे रत्निम रसायनों की हो उठी है। सारी पृथ्वी और स्वर्ग का ऐश्वर्य इस महल में एकत्रित हो गया है। इतना कि वस्तु और उसके सुख की यह संकुलता अब असह्य हो गई है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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