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________________ महल नहीं लौटी थी, अर्थी पर चढ़कर उस युवा को जीवन में लौटा लाने की जिद लेकर स्मशान के पार कहीं भटक गयी थी। पर क्या लौटाकर ला सकी ? • • . अपनी फूलों छायी रत्न-शैया पर कितनी अकेली, वियोगिनी पाया था अपने को। क्या इस क्षण तक का कोई भी सुख, मेरे वियोग के उस क्षत को भर सका है ? . . . भवन-द्वार में भींगी शेफाली-सी, उस तन्वंगी लड़की का सोहाग-सिन्दूर, और भालतिलक अंतिम रूप से पुंछते देखा था : उसके धूल-चाटते कंकण और सूनी कलाइयां देखी थीं। उससे अपने को अलग नहीं रख सकी थी। इसी से तो मेरी चेतना, राजरथ को ठेल कर, स्मशानों के पार भटकने चली गई थी। • लौटकर, अपनी बिछुड़ी काया को, क्या रत्न-शैया में जीवित पा सकी थी : आज अपने फूलों छाये अंग-अंग में उस मृत्यु को गुंथा देख रही हूँ। उस वियोगिनी बाला का, वह आँसू धुला आकंदित चेहरा, इस क्षण मेरी आँखों की पुतलियाँ बन गया है । ___लो, पश्चिमी क्षितिज पर गहरे-गहरे बादल घिर आये हैं । आषाढ़ के बादल । याद आया, आज आषाढ़ की शुक्ला छठ है । चन्द्रमा उत्तराषाढ़ नक्षत्र में आये हैं । सुदूर द्युतिपलाश-चैत्य के उपवन पर, कचनार के फूलों-से हलके जामुनी बादल घने हो रहे हैं। एक गुलाबी-सी बिजली उनमें रह-रहकर कौंध उठती है । . . सल्लकीवन की गन्ध लिये हलकी-सी फुहार बरसने लगी है । और देखतेदेखते पारान्तर में हिमालय की हिमावृत्त चोटियाँ पिघल चली हैं। क्षितिज में भरे वृक्षों की हरियाली श्रेणियाँ बह निकली हैं । ग्रीष्म में दहकते केशरिया पलाश, और कृष्णचूड़ा के कुंकुमी फूलवन बादलों में घुल रहे हैं। __• • औचक ही यह क्या देख रही हूँ कि फुहारों की बेमालूम-सी नीहार में, जाने कितने रंगों की रत्न-राशियाँ जगमगा उठी हैं । और अगले ही क्षण धारासार तरल रत्नों की वर्षा होने लगी है । हिमालय की चूड़ाएँ हीरक तुहिन होकर बरस रही हैं। दूर-दूर की वनालियाँ, मर्कत की धाराएँ हो गई हैं। द्युतिपलाश उपवन के पद्म-सरोवर, पद्मराग मणियाँ बनकर चारों ओर छा गये हैं। दिशाओं की चिन्मय नीलिमा, नीलम की द्रवित शिलाओं सी उमड़ कर नन्द्यावर्त महल की इस छत पर आकर जड़ गयी है। · · द्रव जलधाराओं में जाने कितने रंगों के रत्नों की आभाएँ, एक-दूसरे में मिलजुल कर, एक विराट् इन्द्रधनुष की तरह समूचे लोकाकाश में छा गयी हैं। और जैसे एक तैरते शृंग पर अकेली खड़ी हूँ मैं, त्रिशला। और रत्नों का यह आप्लावन मेरे पैर पखार रहा है । . . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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