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________________ २७ मनुष्य का पद-संचार नहीं हुआ । पश्चिम में कोसल, कुशिनारा और पावा के प्रबल मल्लों के राज्य हैं । दक्षिण में हहराती विशाल-वक्षा गंगा, जैसे इस क्षण मेरे आँचल में उफन आई है। पश्चिम में हिमालय की तलहटी के वे उत्तुंग देवदारु वन जैसे मेरी बाँहें बन कर फैले हैं। लिच्छवियों की इसी वैशाली में, गणतंत्र राज्य की नीवें पड़ी हैं । यहां के संसार प्रसिद्ध संथागार में, हर नागरिक अपने अधिकारों का स्वायत्त निर्णायक है। अभी और यहाँ, मनुष्य की प्रासंगिक स्वतंत्रता यहीं समीचीन रूप से परिभाषित हुई है । विदेहों की वैशाली में परम मुक्ति का ही नहीं, प्रासंगिक स्वातंत्र्य का सूर्य भी अपनी परिपूर्ण प्रभा से जगमगाया है। इस हद तक कि हर लिच्छवि, अपने को राजा कहता है । हर मनुष्य यहां अपना राजा है । __ वैशाली के महलों में हो कि कुण्डपुर के इस 'नन्द्यावर्त प्रासाद' में हो, संसार का कोई सुख मुझे अनजाना नहीं रहा । किसी भी चीज़ की तो कमी नहीं रही। केवल एक ही कमी आज हृदय को साल रही है : कि कोई कष्ट, कोई कमी तो होती, कि जिसके झरोखे से संसार की सीमा का बोध हो सकता। दुःख के बिना, यह सुख चित्र-लिखित-सा लगता है । इतना सपाट कि इसमें कोई गहराई, ऊँचाई, चतर्मुखता, विविधता हाथ ही नहीं आती। इस आयामहीन सुख में अब मन रमता नहीं। आज लग रहा है, जैसे इससे निकलकर कहीं चले जाना है । कहाँ, मो नहीं मालूम। ऐसा भी क्या पुण्य कि अपने जीवनकाल में, पीहर और ससुराल में कहीं भी मृत्यु नहीं देखी । शुरू से ही बहुत स्वतंत्र स्वभाव की हूँ। और फिर स्वातंत्र्य सूर्य के अप्रतिम देश वैशाली की बेटी और बह हैं। इसी कारण, अपने स्वभाव के अनुरूप ही, लड़कपन में जब चाहूँ कहीं भी विचरने की छुट्टी मुझे रही है । महल के रत्न-दीपों की जड़ रोशनी से भाग कर, कई बार अपने राज्य के नगर-ग्रामों और वन-कान्तारों में भटकी हूँ। वैशाली की राजबाला ने रथ की मर्यादा तोड़कर, धूल-कंकड़, काँटों, चट्टानों का अनुभव भी किया है । इस जनपद में अन्न-वस्त्र, आवास का अभाव बेशक नहीं है । पर धनो और निर्धन के अन्तर को अपनी आँखों देखा है । क्षय, रोग, बढ़ापे और मृत्यु के दृश्य देखे हैं। दूरी में ओझल होती शव-यात्रा और धाड़ मार कर रोते वियोगियों का शोक-संताप देखकर, मेरी तहें कॉपी हैं। याद आ रहा है, एक बार अर्थी पर लेटे, सुन्दर मृत युवा के चेहरे को देख, घर लौटने से मन ने इन्कार कर दिया था । ऐसा लगा था, जैसे रथ पर चढ़कर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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