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प्रतीक्षा करो, प्रियकारिणी
आज सवेरे जागी, तो देखा कि फूलों के समुद्र में से उठी हूँ। अंग-अंग फूलों से लदी डाली हो गया है । रोम-रोम में से रह-रहकर नये फूल फूट रहे हैं । परिमल से भीनी हवा में, जाने कैसी पीलिमा छा गई है । सारा दिन एक विचित्र डूबन की तन्द्रा में बीता है। ___ अब साँझ होते-होते, जाने कब इस सात-खण्डे महल की उत्तुंग छत पर चली आई हैं। चारों ओर देख रही हैं, तो पाती हैं कि दिशाओं की नीलिमा जैसे चिन्मय हो उठी है। तमाम दूरियों के पार, वहां अन्तिम पानियों के किनारे हैं। एक लहर वहाँ से आती है, तो यह सारी सृष्टि उसके बहाव में तरल हो जाती है। सब-कुछ के भीतर की द्रव्यता अपने आर-पार प्रवाहित-सी लगती है।
और अपने पूरे अस्तित्व को, अपने समूचे आसपास को, एक नये ही संदर्भ में पढ़ रही हूँ । अपने को एक नयी रोशनी में पहचान रही हूँ। मैं त्रिशला, विश्वविख्यात वैशाली के गणाधिपति महाराज चेटक की सब से बड़ी बेटी हूँ। वाशिष्ठ क्षत्रियों का यह कुल, इक्ष्वाकुओं की गौरवशाली परम्परा है। अभी कल ही की तो बात है कि हमारे पूर्वज जनक ने विदेह होकर, सदेह जगत के तमाम ऐश्वर्यों को यहां अचूक भोगा था। उससे ऐसी महिमा प्रकट हुई थी कि आर्यावर्त के इस प्रदेश का नाम ही विदेह हो गया। जानकी सीता वैदेही कहलाई : और मेरी शिराओं में गूंज उठा है : 'तू भी तो वैदेही है, त्रिशला !' चाहने को और क्या रह जाता है। ___ और ब्याह कर मैं ज्ञातृ-वंशीय महाराज सिद्धार्थ की महारानी बन कर, क्षत्रिय कुण्डपुर के इस राजमहल में आई हूँ। इस समूचे कोल्लाग संनिवेश की अधीश्वरी हूँ। अपने स्वायत्त राज्य के सीमान्तों को देख रही हूँ। पूर्व में वह अरण्यों का प्रदेश है । सुनती हूँ, उसके कई वनखण्ड अभेद्य हैं । वहाँ आज तक
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