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मेरे युग-युग सम्भव नित-नव्य महावीर ने कर्म-सिद्धान्त की इस स्थापितस्वार्थी और शोषण-समर्थक व्याख्या का सीधा-सीधा भण्डाफोड़ किया है। जिनेश्वरों द्वारा आदिकाल से उपदिष्ट सत्ता-स्वरूप के आधार पर ही उन स्वयम् सत्ताधीश्वर भगवान ने कर्म-सिद्धान्त को उसके प्रकृत स्वरूप में खोल कर सामने रक्खा है। व्यक्ति-स्वातंत्र्य, समाजवाद, विकासवाद-प्रगतिवाद आदि हमारे मौजूदा युग की सर्वोपरि पुकारें हैं। उनके पीछे निश्चय ही महासत्य का कोई अनिर्वार तकाजा काम कर रहा है। शाश्वत सत्ता-पुरुष महावीर के संयुक्त स्थिति-गतिमान व्यक्तित्व से यदि इन पुकारों का युगानुरूप उत्तर न आये, तो जिनेश्वरों द्वारा प्रवचित सत्ता-स्वरूप ही गलत और व्यर्थ सिद्ध हो जाता है। ____ जैसा कि आरम्भ में ही कह चुका हूँ, महावीर अपने समकालीन इतिहास में एक प्रतिवादी विश्व-शक्ति के रूप में प्रकट हुए थे। मौलिक सत्ता के सन्तुलन-मंग से, तत्कालीन विश्व-व्यवस्था में जो भीषण विकृति उत्पन्न हुई थी, उसके विरुद्ध वे विप्लव और विद्रोह के ज्वालामुखी के रूप में उठे थे। इस अतिक्रान्ति और प्रतिवाद का स्रोत सतही इतिहास की क्रिया-प्रतिक्रियाजनित दुष्ट शृंखला में नहीं था। वह सत्ता और आत्मा के मूल स्वरूप में था। इस प्रचण्ड क्रियावादी का कर्मयोग, विशुद्ध आत्म-स्वभाव में से विस्फोटित हुआ था। वैशाली का वह विद्रोही राजपुत्र अपने युग की मूर्धा पर ज्ञान और अतिक्रान्ति के अनिर्वार सूर्य के रूप में उद्भासित दिखायी पड़ता है। ____ इसी कारण वर्तमान युग की तमाम मौलिक पुकारों और समस्याओं का मौलिक उत्तर और समाधान मेरे महावीर की वाणी में सहज प्रतिध्वनित सुनाई पड़ता है। महावीर के धर्म-शासन में व्यक्तिगत सम्पत्ति के संचय और शोषक समाज-व्यवस्था के लिए कोई स्थान नहीं। जिनेश्वरों द्वारा उपदिष्ट वस्तु-स्वरूप, अनेकान्त, अहिंसा और अपरिग्रह से अधिक सशक्त समर्थन और अचूक आधार, आज की समाजवादी पुकार को शायद ही कहीं अन्यत्र मिल सके। पर यह सच है कि आज का जैन समाज महावीर के उस धर्मशासन का प्रतिनिधि नहीं, प्रतिरोधी ही कहा जा सकता है। महावीर का व्यक्तित्व इसमें प्रतिबिम्बित नहीं; महावीर से इसका कोई लेना-देना नहीं।
एक और भी अहम मुद्दे का स्पष्टीकरण आवश्यक है। ज्यादातर इतिहासकारों ने महावीर को ब्राह्मण-धर्म और वेद का विरोधी बताया है। यह एक ऐसा भयंकर 'ब्लंडर' है, जिसका सख्त प्रत्याख्यान होना चाहिये। महावीर ने कहीं भी वैदिक-उपनिषदिक वाङमय, और विशुद्ध ब्राह्मण-धर्म का विरोध नहीं किया है। उन्होंने वेद-भ्रष्ट पथच्युत ब्राह्मणों द्वारा की गई वेद और
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