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सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र्य, यानी सम्यक् देखना, सम्यक् जानना, सम्यक् जीना, उक्त सत्ता-स्वरूप में तद्गत रूप से जीवन-धारण और मोक्ष-प्राप्ति का एकमात्र उपाय है। कर्म-सिद्धान्त, अहिंसा-अपरिग्रह आदि भी स्थितिगति-संयुक्त सत्ता के उसी प्रकृत स्वरूप की ही अनिवार्य उपज हैं। कमोबेश सभी भारतीय धर्म-दर्शनों ने अपने-अपने तरीके से कर्म-सिद्धान्त का प्रवचन किया है। वह मूलतः मनुष्य के स्वायत्त पुरुषार्थ का उद्योतक है। पर इतिहास के चक्रावर्तनों में, प्रभु-वर्गीय शोषक शक्तियों ने ही उसकी भाग्यवादी व्याख्याएँ की और करवाई हैं। धर्मों और धर्माचार्यों तक को उन्होंने अपनी मदान्ध भौतिक प्रभुता का खिलौना बनाकर रक्खा है। उसी दौरान कर्म-सिद्धान्त को स्थापित-स्वार्थी वर्गों के हित में व्याख्यायित किया और करवाया गया है। कर्मवाद, भाग्यवाद, पुण्य-पापवाद की आड़ में शोषक शक्तियों ने भारत के इतिहास में जिन अमानुषिक अत्याचारों की सृष्टि की, वह तो इस क्षण तक भी स्पष्ट प्रकट ही है। वह सिलसिला भारत में आज के धर्म और अध्यात्मगुरुओं को छत्र-छाया में भी, ज्यों का त्यों अटूट चल और पल रहा है। वर्तमान भारत के सारे ही शीर्षस्थ और अध्यात्म-शक्ति-सम्पन्न श्रीगुरु-दरबार मी काले-बाजारियों की सम्पदा के बल पर ही फल-फूल रहे हैं। भारतीय जन-जीवन के निकृष्ट हत्यारों को भी इन श्रीगुरुओं के चरण-कमलों में बेशर्त शरण और अभयदान प्राप्त होता है।
. इन श्रीगुरु दरबारों में मैंने देखा है, दीन-दलित, पीड़ित जन-साधारण दुःख से लबरेज़, आंसू टपकाते हुए, दर्शनार्थियों के क्यू में अपनी बारी आने पर जब श्रीगुरु के समक्ष आते हैं, तो श्रीगुरु उनकी ओर देखते तक नहीं। वे अपनी व्यथा-कथा कहते ही रह जाते हैं, और श्रीगुरु के छड़ीदार उन्हें वहाँ से खींच-ढकेल कर अपनी राह भेज देते हैं। जबकि दूसरी ओर काले बाजारों से करोड़पति बने महाजन और रिश्वतखोर राज्याधिकारी श्रीगुरु के चुनिन्दा भक्तों के रूप में उनकी दायीं ओर खड़े रहने के विशिष्ट हक़दार होते हैं। यही लोग आश्रमों के श्रेष्ठ साधनों के उपभोक्ता होते हैं,
और हँसते-बलखाते जश्न मनाते दिखायी पड़ते हैं। कोई भी तीर्थकरत्व, योगीत्व या सन्तत्व यदि आज के भीषण वैषम्य के युग में कर्म-सिद्धान्त और प्रारब्धवाद की आड़ में, दीनहीन, शोषणग्रस्त जन-साधारण के सुख-दुख, संघर्ष और समस्याओं से बसरोकार रहे, तो मैं उसे गम्भीर शंका की दृष्टि से देखता हूँ। मैं उसे स्थापित-स्वार्थी, शोषक और अत्याचारी शक्तियों का समर्थक और पक्षघर मानने को लाचार होता हूँ।
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