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________________ २८ और भू-मण्डल-व्यापी निर्वाण-महोत्सव का विरोध करके, महावीर को अपने ठेके की सम्पत्ति घोषित करने का एक महान पड्यंत्र भी कहीं चल रहा है। यह विश्व-पुरुष महावीर को विश्व-पट पर से मूंस देने की आखिरी बर्बरता का द्योतक है। हम जैनों का गत कई सदियों का इतिहास महावीर-पूजा का नहीं, महावीर-द्रोह का इतिहास है। अजब व्यंग्य है, कि महावीर के नाम का नक्काड़ा पीट कर हम इस वक्त सारी दुनिया को जगाने में लगे हैं, मगर हम खुद ही सोये हुए हैं, बदहवास और गाफ़िल हैं। ऐसी आत्म-हत्यारी धार्मिक बिरादरी दुनिया में विरल ही कोई होगी। सत्ता जैसी सामने आती है, वह स्थिति और गति की संयुति होती है। इसी से जैन द्रष्टाओं ने उसे ठीक इसी रूप में परिभाषित किया है। महावीर सत्ता के उस तात्विक स्वरूप के चरम मानवीय प्रकटीकरण थे। उनके स्थिति पक्ष का गान तो जिन-शासन में सदियों से होता चला आया है। पर उनके गति-प्रगतिशील पक्ष का कोई जीवन्त मानवीय स्वरूप, मौजुदा स्रोतों से हमें उपलब्ध नहीं होता। जो अपने काल का सूर्य, और अपने युग-तीर्थ का प्रवर्तक तीर्थंकर था, क्या वह अपने समय की विविध-आयामी जीवन-व्यवस्था से बेसरोकार रह सकता था? उस ज़माने के सत्ताधारियों, धर्म-पतियों और वणिक-श्रेष्ठियों के भ्रष्टाचारों और अनाचारों को क्या वह अनदेखा कर सकता था? यह वस्तुतः ही संभव नहीं है, और न उनके तीर्थकरत्व के साथ संगत हो सकता है। अनुगामी आचार्य परम्पराओं ने चाहे महावीर के इस 'रोल' की अवगणना की हो, पर वास्तव में उनके विश्व-परित्राता स्वरूप का यह जीवनोन्मुख आयाम भी अनिवार्यतः प्रकट हुआ ही होगा। मैंने अपनी इस कृति में भगवान के उस कर्मयोगी धर्म-धुरन्धर व्यक्तित्व को जीवन्त करने का प्रयास किया है। पर उनकी समग्र जीवन-दृष्टि और विश्व-दृष्टि को मैंने सत्ता के उपरोक्त तात्विक स्वरूप पर ही आधारित किया है। 'उत्पादव्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्वम्' : सत्ता एक बारगी ही उत्पाद, व्यय और ध्रुव की संयुति है। आधारभूत सत्ता (फंडामेंटल रियालिटी) की यह जिनेश्वरों द्वारा उपदिष्ट परिभाषा संसार के दर्शनों में अप्रतिम है। इसी को वस्तु या व्यक्ति का स्वभाव भी कहा गया है। इसी मत्ता-स्वरूप या वस्तु-स्वभाव पर मैंने महावीर के समूचे व्यक्तित्व, कृतित्व, जीवन और प्रवचन को आधारित किया है। ___ जैनों का अनेकान्त-दर्शन भी, सत्ता के उपरोक्त अनन्त-आयामी (अनन्त गुण-पर्याय) स्वरूप को सही रूप में पकड़ने की एक कुंजी है। सम्यक् दर्शन, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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