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________________ पर पर्दा डालने की नादानी है, जिस पर सिद्धात्मा महावीर को भी हँसी आ जाती होगी। एक ओर हम अनेकान्त, अहिंसा और अपरिग्रह के नारों से धरती-आसमान थर्रा रहे हैं, और दूसरी ओर हम इतने कट्टर एकान्तवादी, हिंसक, द्वेषी और परिग्रह-मूर्छित हैं कि अन्य धर्मियों की तो बात दूर, स्वयम् महावीर की सन्तानों ने ही अपने सम्प्रदाय-कलह की वेदी पर, ठीक तीर्थंकर-मूर्तियों के समक्ष, परस्पर भाई-भाई को क़त्ल तक किया है ! तीर्थों पर अपने कानूनी कब्जे जमाने को हम चार-चार दशकों से अदालतों में लड़ रहे हैं, और लाखों रुपयों की आतिशबाजी कर रहे हैं। अपने गिरते हुए और लाचारी में जीते हुए सहधर्मी बन्धुओं को उठाने और जिन्दा रखने को हमारे श्रीमन्त अपना दायित्व और कर्तव्य नहीं मानते, पर तीर्थों की सम्पत्ति पर तालेबन्दी करने की तीव्र कषाय के वशीभूत हो, वे अपने धन को पानी की तरह अनर्गल बहा सकते हैं। जो महावीर सारे बन्धन काट कर, सारे वाद-सम्प्रदाय के घेरे तोड़कर, इतिहास में नग्न और निग्रंथ खड़ा है, उसे अपनी साम्प्रदायिक ग्रंथियों में जकड़ कर, मनमाना काट-छाँट कर विकृत कर देने में हमने कोई कसर नहीं उठा रक्खी है। भगवान के इस विश्व-व्यापी महानिर्वाणोत्सव की मंगल-बेला में भी यदि हम उपरोक्त स्थल कषाय और मोटे पूर्व-ग्रहों से मुक्त हो, आत्मिक एकता के सूत्र में न बँध सके, तो इतिहास में यह निर्वाणोत्सव हमारे गौरव का नहीं, लज्जा और कलंक का अध्याय होगा। ____ जहाँ तक मेरी अपनी बात है, सम्प्रदाय तो दूर, मैं तो तथाकथित जैनत्व के दायरे से भी बहुत पहले निष्क्रान्त हो चुका। कृष्ण, महावीर और क्रीस्त को एक ही महासत्ता के विभिन्न-मुखीन प्रकटीकरण (मेनीफ़ेस्टेशन) मानने वाला मैं, एक स्वतंत्र सत्य-संधानी कवि हूँ। तब साम्प्रदायिकता तो मुझे छू भी कैसे सकती है। इसी से महावीर का आत्मज कवि वीरेन्द्र, उनके अनुयायियों की इस कट्टर धर्मान्धता, और अपने स्वार्थ-साधन के लिए महावीर की हत्या तक कर देने की उनको तत्परता देख कर, खून के आँसू रो आया है। मेरे धर्म-रक्त की विरादरी, क्या मेरे इस हृदय-रक्त को देखकर पिघल सकेगी? पहले ही महावीर को अपनी घोर साम्प्रदायिकता के कारागार में पच्चीस सदियों तक कैद रख कर, उन्हें इतिहास के पट पर से मिटा देने का महाअपराध हम बराबर करते चले आ रहे हैं। और आज भी, भारतीय राष्ट्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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