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________________ २६ निर्णयों पर चलने की प्रत्याशा न करें। मोटे तौर पर भौगोलिक स्थितियों और नामों का मानचित्र के अनुरूप सहज निर्वाह किया गया है। पर चुनाव का सन्दर्भ-सूत्र मैंने अपना स्वतंत्र रक्खा है। उसमें सौंदर्य, भाव और कलात्मकता ही निर्णायक है। मैं उसे किसी भी कलाकार का एक स्व-सत्ताक 'ज्यूरिस्डिक्शन' (अधिकार-क्षेत्र) मानता हूँ, जो तथ्य-पंडितों की मदाखलत से परे है। __व्यक्तियों, उनके नामों, और उनके बीच के सम्बन्धों के आकलन में भी मैंने स्वतंत्रता बर्ती है। उपलब्ध सम्बन्ध-सम्भावनाओं में जो सम्बन्ध मेरी कथा को अधिक सतेज और पुष्ट करे, उसी को मैंने मान्यता दी है। दिगम्बरश्वेताम्बर मान्यताओं के भेद को गौण कर, मैंने उन दोनों ही स्रोतों से अपने अनुकूल चुनाव कर लिये हैं। __ श्वेताम्बर आगमों में ही महावीर की जीवनी के उपादान मिलते हैं। सभी अधिकारी इतिहासकारों ने उन्हें प्रामाणिक स्रोत के रूप में स्वीकारा है। आगमों की भाषा, कथन और कथा-शैली, प्रवचन और वार्तालाप को शैली, सम्बोधनात्मक शब्दावली आदि बौद्धागमों से बहुत मिलती-जुलती है। प्रमुखतः बौद्धागमों में ही महावीरकालीन भारत का जीवन्त प्रतिबिम्ब मिलता है। वही समकालीन सभ्यता-संस्कृति के सही आइने हैं। श्वेताम्बर आगमों में भी अंशतः यह विशेषता मौजूद है। साम्प्रदायिक पूर्वग्रहवश इन आगमों को न स्वीकार कर, दिगम्बरों ने महावीर की जीवनी को ही गॅवा दिया है। महावीर के जीवन-चरित्र से भी उन्हें अपना मताग्रह अधिक मूल्यवान प्रतीत हुआ। अनाग्रह, अपरिग्रह और मोह-मुक्ति का प्रवचन तो हम साँस-साँस में करते हैं। पर धर्म तक में अपने मोह, आग्रह और परिग्रह को ठोंक बैठाने में हमने कोई कसर नहीं रक्खी है। महावीर से अधिक हमें ये प्रिय हैं, और जी-जान से हम उनसे चिपटे हुए हैं। श्वेताम्बर आगमों का दिगम्बरों द्वारा अस्वीकार, महावीर के जिन-शासन की एक महामूल्य दस्तावेज़ और विरासत को नकार देने का सांस्कृतिक अपराध ही कहा जा सकता है। दूसरी ओर श्वेताम्बर सम्प्रदाय, इतिहास में महावीर का दिगम्बरत्व सिद्ध होने पर भी, और आगमों में महावीर का अचेलक नग्न होना स्पष्ट उल्लिखित होने पर भी, श्वेताम्बरत्व के पूर्वग्रह से ग्रस्त होकर महावीर के चित्रों में उसे झाड़ की डाल, छाया, कोहरे, अन्धड़ की धूल, अग्नि-ज्वाला और साँपों से ढाँकने की हास्यापद चेष्टा करता है। पंथ-मूढ़तावश यह सत्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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