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________________ २५ कथा को एक बहुत गर्भवान और ताक़तवर 'सस्पेंस' देने के लिए मैंने क्षत्रिय-कुण्डपुर को वैशाली के एक उपनगर के रूप में, एक खास सन्दर्भ में, उससे अलग भी रक्खा है। वैशाली और कुण्डपुर के बीच का फासला कितने भील या योजन का है, इस तथ्य में मुझे दिलचस्पी नहीं। नाकुछ मीलों का जो भी फ़ासला है, उसे मैंने उभारा है। महावीर शैशव के बाद अट्ठाईस बरस की उम्र तक वैशाली नहीं जाते। हिमवान और विन्ध्याचल गँ ध आये, कितने ही जनपदों में घूमते-फिरे, मगर बार-बार बुलाये जाने पर भी वैशाली नहीं गये। लगभग अपने गृह-त्याग की पूर्व-सन्ध्या में ही वे पहली बार, एक नियति-पुरुष को तरह वैशाली जाते हैं। और वहाँ के सन्थागार में उस सत्य-शक्ति का विस्फोट करते हैं, जिसे लेकर वे जन्मे थे, और जो यहाँ उनकी एकमात्र 'डेस्टिनी' (नियति) थी। तब कुण्डपुर और वैशाली के बीच का उपरोक्त फ़ामला कितना महत्वपूर्ण और सार्थक सिद्ध होता है ! क्षत्रिय-कुण्डपुर के पास गण्डकी नदी बहती है। कुछ विद्वान इसी को हिरण्यवती भी कहते हैं। बिना किसी तथ्य-निर्णय की झंझट में पड़े मैंने 'हिरण्यवती' को अपना लिया है। क्योंकि इसको ध्वनि भी सुन्दर है, और हिरण्यमय पुरुष महावीर की पप्टमि में वह एक अत्यन्त सार्थक प्रयोग सिद्ध होती है। बंगालो के प्रमुख राजवंश विदेह-वंश भी कहे गये हैं। आगमों में स्वयम् महावीर को विदेह-पूत्र और उनकी माँ त्रिशला को विदेहदता भी कहा गया है। जनक विदेह का विदेह-वंश ममाप्त होकर लिच्छवियों में निर्माज्जत हो गया लगता है। वैशाली और उसका समस्त राज्य-परिसर विदेह-देश भी कहलाता है। इसीसे महावीर को मैंने आध्यात्मिक और कुल-परम्परा, दोनो ही अर्थों में जनक विदेह का वंशज भी कहा है। जाहिर है कि इस तरह तथ्यात्मक संगति भी महज ही बैठ जाती है और जनक तथा याज्ञवल्क्य के साथ जोड़ कर महावीर को भारत के ज्ञानात्मक और सांस्कृतिक इतिहास और परम्परा में कड़ीबद्ध रूप से घटित करना महज सम्भव हो जाता है, जो कि इस रचना में मेरा अनिवार्य अभीष्ट था। विदेहों की वंशाली कहकर, जनक की जनकपुरी को भी मैंने मोटे तौर पर बृहत्तर वैशाली क्षेत्र में ही सहज समावेशित कर लिया है। इसी से हिरण्यवती के जल को सीता, मैत्रयो, गार्गी के स्नान से पावन कहना संगत हो सका है, और उससे महावीर की भौगोलिक पृष्ठ-भूमि में एक अद्भुत महिमा और पवित्रता की सृष्टि सम्भव हो सकी है। ऐसे ही और भी भौगोलिक और ऐतिहासिक नामों में मैंने सम्बन्ध-सूत्र जहाँ-तहाँ जोड़े होंगे। तथ्य-निर्णायक शोध-पंडित मुझ से अपने विवादग्रस्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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