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________________ खोलते चले जाते हैं। मगर अवचेतना-प्रवाह की विशृंखल अभिव्यक्ति यहाँ नहीं है, बल्कि अतिचेतना-प्रवाह का एक अन्तर्वेधी अन्वेषण और ऊर्जस्वल निवेदन ही इसमें अधिक सक्रिय दीखता है। मेरे उपन्यास के महावीर अवतार जैस लग सकते हैं। जन लोग अवनारवाद का सैद्धान्तिक ढंग से विरोध करते हैं। पर मेरे महावीर तो सारे बंधे-बँधाये ढांचों और सिद्धान्तों को तोड़ते हुए सामने आते हैं। वे तो परम अनेकान्तिक और निरन्तर प्रगतिमान सत्ता-पुरुष हैं। अनेकान्त मूलतः भावात्मक वस्तु है, तार्किक नहीं। वह एक बारगी ही नाना भाविनी निसर्ग वस्तु-मता का द्योतक है। इसी से कहना चाहता हूँ कि अनेकान्तिक सत्ता के मूर्तिमान विग्रह महावीर को किन्हीं ऐकान्तिक गणित-फॉर्मलों, परिभाषाओं और सिद्धान्तों के वाग्जाल में नहीं बाँधा जा सकता। युग की महावेदना और चरम पुकार के उत्तर में ही तीर्थंकर पृथ्वी पर अवतरित हो कर, समकालीन जगत को उम यातना के नागचुड़ से मुक्त करते हैं, जन-जन और कण-कण को उनकी स्वाधीन मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं, और एक नये भांगलिक युग-तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं। प्रलय और उदय की शक्ति एक माथ उनके भीतर से विस्फोटित होती है। अज्ञानान्धकार का विनाश और ज्ञान का प्रकाश उनके हर वचन और वर्तन से एक साथ होता चला जाता है। उनके इस पुंजीभूत (कॉन्ससेंट्रेटेड), केन्द्रीय, युगंधर और युगंकर स्वरूप को अवतार के सिवाय और क्या कहा जा सकता है। कम से कम भावात्मक रूप से तो ऐमा सहज ही कहते बनता है। और सिद्धान्त की भापा तो मेरे मन कट्टर एकान्तवाद की भाषा है, और प्रकट है कि मेरे महावीर उस कठघरे को तोड़ने आये थे। सो किसी कठघरे की भाषा में महावीर को कैसे परिभापित किया जा सकता है ? भौगोलिक और ऐतिहासिक नामों के चुनाव में मैंने स्वतन्त्रता बरती है। उसमें प्रथमत: मेरी दृष्टि सौन्दर्यात्मक और कलात्मक रही है। कल्प-चित्र, ध्वनि और भावाशय, सभी दृष्टियों से जो नाम अधिक सार्थक लगे, उन्हें मैंने अपना लिया है। पुरातात्विक और शोध- कर्ता की तथ्य-निर्णय की दृष्टि मेरे रचनाकार को स्वीकार्य न हो सकी। एक खास प्रसंग में किस नदी, पर्वत, वन, नगर, पुर-पत्तन का नाम अधिक सार्थक ध्वनि-चित्र और कल्प-चित्र उत्पन्न करता है, उसी को मैंने चुन कर नियोजित कर दिया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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