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________________ २३ ही समेटा जा सकता है। पराकोटि की कल्प-चेतना के बिना उनका सजीव कल्पन और बिम्बायन सम्भव नहीं । कवि की परात्पर-गामिनी कल्पक उड़ान, और अतलगामी धँसान के बिना, महावीर के अनन्त-आयामी और अथाह व्यक्तित्व को नहीं थाहा जा सकता, नहीं सिरजा जा सकता । बेशक मुझे यह सुविधा रही, कि मैं मूलतः एक कवि हूँ। मेरी संवेदना और कल्पना स्वभाव से ही पारान्तर- बंधी है । वस्तुओं, व्यक्तियों, घटनाओं, सौन्दर्यो और सम्वेदनों के छोरों तक गये बिना मुझे चैन नहीं पड़ता । अपनी इस स्वभावगत तीव्रता, वेधकता और विदग्धता ( पोइगनेंसी) के चलते, महावीर की रचना में मुझे काफी सुविधा हुई है । कटे-छंटे तर्क-संगत गद्य में एक विस्फोटक और देश - कालोत्तीर्ण सत्ता - पुरुष को कैसे सहेजा जा सकता है। भी आज कथा और कविता के बीच की मर्यादा - रेखा बहुत बेमालूम हो गई है। सृजन की सारी ही विधाएँ एक-दूसरे में अन्तर-संक्रान्त होती दीखती हैं। आधुनिक उपन्यास के आदि जनक हेनरी प्रूस्त ने ही, कथा को sant होने से नहीं बचाया या । वह मानव आत्मा के ऐसे अन्तर्तम कक्षों के द्वार खटखटा रहा था, जहाँ काव्य की सूक्ष्मता के बिना प्रवेश पाना सम्भव नहीं था। इसी से वह कविता की तमाम सूक्ष्मता, गीतिवत्ता (लिरिसिज्म), अवगाहनशीलता ( प्रोबिंग), प्रवाहिता और लचीलापन एक बारगी ही अपने उपन्यास 'दि स्वान्स वे' आ था। मेरे प्रस्तुत उपन्यास में काव्य और कथा की यह अन्तर-संक्रांति सहज ही घटित हुई है । विषय की असाधारणता के अनुरूप अपना एक विलक्षण शिल्प-विधान, मेरी रचनाप्रक्रिया में आपोआप ही प्रस्फुटित होता चला गया है । इसी प्रक्रिया के दौरान एक और भी आज़ादी मैंने ली है, या कहूँ कि बिना किसी अपने फ़ैसले के वह मुझ से लेते ही बनी है। यानी चाहे जब हर कोई पात्र स्वयम्, आत्म-कथात्मक अन्दाज़ में अपनी कथा कहने लगता है । प्रथम खण्ड के कुछ गिने-चुने अध्यायों में ही कथाकार कहानी कहता नज़र आता है। वर्ना तो लगभग सभी अध्यायों में, महावीर सहित सारे पात्र अपनी कथा स्वयम् ही कहते सुनायी पड़ते हैं । द्वितीय खण्ड तो समूचा महावीर के आत्म-कथन के रूप में ही प्रस्तुत हुआ है। तृतीय खण्ड का रूप प्रथम खण्ड की तरह ही मिला-जुला है । कुछ ऐसा लगता है, मानों कि एक आत्मिक विवशता से उत्स्फूर्त होकर पात्र अपनी चेतना को पर्त-दर-पर्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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