________________
२२
अपने भीतर के अनिवार्य तक़ाज़ों से बेताब हो कर ही रचना करता है । उसके भीतर से जब एक पूरा युग और जगत बोलने और बाहर आने को छटपटा रहा हो, तो यह उसके वश का नहीं होता, कि अपनी रचना के स्वरूप और शिल्प का विधाता वह स्वयम् रह सके । खास कर महावीर जैसी विश्वसत्ता जब किसी रचनाकार के हाथों रूप लेना चाहे, तो उस रचना के रूप-तंत्र का स्टीयरिंग व्हील ( चालक- चक्र ) भी वह अपने हाथ में ही ले लेती है । रचनाकार की हैसियत महज़ चक्र की रह जाती है, जो महावीर के हाथों में घूम रहा है ।
इसीसे कहना चाहूँगा कि यह कृति यदि कोरी कथा से अधिक एक व्यक्तित्व-प्रधान वैचारिक महागाथा बनी है, तो उसके विधायक और निर्णायक महावीर ही रहे हैं, मैं नहीं ।
वैसे भी मैं यह मानता हूँ कि हर सच्चा और मौलिक कृतिकार अपनी विधा स्वयम् ही निर्माण करता है । पहले ही से मौजूद निर्धारित विधाओं की परिधि में बँधना वह कुबुल नहीं कर सकता। आज तो सर्जना और कला के क्षेत्रों में ऐसा अपूर्व नवोन्मेष प्रकट हुआ है, कि हर कलाकार और सर्जक, अपनी हर अगली रचना में, अपनी भीतरी सृजनात्मक आवश्यकता के अनुरूप, नयी विधा प्रस्तुत करता दीख रहां है । काव्य, महाकाव्य, कहानी, उपन्यास, नाटक के तमाम पुराने ढाँचे धड़ल्ले से टूट रहे हैं । रचनाकार अपनी हर नवीन कृति में कोई नया ही स्वच्छन्द प्रयोग करते नज़र आते हैं। एक उपन्यास ठीक उपन्यास होने के लिए आज किन्हीं पूर्व निर्णीत हदों और पाबन्दियों का क़ायल नहीं । भीतर का कथ्य और सम्वेदन, अपनी निसर्गधारा में बहता हुआ, अपने शिल्पन के ढाँचे अपने ही अन्दर से फेंकता चला जाता है । आज रचना-धर्मिता ज़रा भी कृत्रिम प्रयास - साध्य नहीं रह गई है । वह बहुत सहज, मुक्त और निसर्ग हो गई है । पहाड़, झरने, समन्दर, ज्वालामुखी, आत्मा और इतिहास सीधे-सीधे अपनी तमाम ताकत और अस्मिता के साथ रचना में मुद्रित और शिल्पित होते चले जाते हैं ।
शुरू में महावीर पर महाकाव्य लिखने का इरादा था, और आभारी हूँ मुनीश्वर विद्यानन्द स्वामी का, कि उपन्यास लिखा गया। महाकाव्य उपन्यास होने को मजबूर हुआ, तो उपन्यास महाकाव्य हुए बिना न रह सका । एक नया ही आयाम पैदा हो गया। महावीर जैसे अनन्त पुरुष को महाकाव्य में
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org