SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 385
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यज्ञ की असत्य, स्वार्थी और विकृत व्याख्याओं का निश्चय ही भंजन किया था। सच तो यह है कि भगवान ब्रह्मज्ञानी व्राह्मण को ही समाज की मूर्धा पर प्रतिष्ठित किया चाहते थे। यह नियम है कि सर्वज्ञ केवली हो जाने पर, तत्काल ही तीर्थंकर की लोक-कल्याणकारी धर्म-देशना अचूक आरंभ हो जाती है। पर कैवल्य-मूर्य महावीर की दिव्यध्वनि तब तक अटकी रही, जब तक उस काल का ब्राह्मण-श्रेष्ठ इन्द्रभूति गौतम, एक उपयुक्त और नियत पट्टगणधर के रूप में उनके समक्ष आकर उपस्थित न हो गया। आगमों में इसके प्रचुर प्रमाण मिलते हैं कि अपने ग्यारह प्रमुख ब्राह्मण गणधरों द्वारा ब्राह्मण श्रुति-कथनों पर ही सन्देह प्रकट किये जाने पर, बारम्बार भगवान ने उन ब्राह्मण पंडितों की समझ को ही दूषित और गलत बताया, तथा स्वयम् उपनिषद्-सूत्रों को उद्धृत कर, उनकी सत्यता का यथास्थान समर्थन करते चले गये। भगवान ने हर चन्द यह स्पष्ट किया है कि ब्राह्मण श्रुतियाँ अपने प्रकृत कथनों में, सापेक्ष दृष्टि से एकदम सही हैं, पर संशायात्मा और स्वार्थमूढ़ ब्राह्मणों ने स्वयम् ही अपने अधूरे ज्ञान से उनकी गलत व्याख्याएँ करके, वेद, यज्ञ और आर्ष ब्राह्मण धर्म को अध:पतित किया है। महावीर के प्रथम ग्यारह गणधरों का ब्राह्मण होना, और जिन-शासन के सभी प्रमुख आचार्यों का ब्राह्मण होना इस बात को प्रमाणित करता है कि ब्रह्म को जीवन में आचरित करने वाले सच्चे ब्राह्मण का जिनेश्वरों की धर्म-परम्परा में सदा ही सर्वोच्च स्थान रहा है, और आगे भी रहेगा। मेरे महावीर परम्परागत श्रमणों और शास्त्रों की शब्द-बद्ध सीमित वाणी नहीं बोलते। जो स्वयम् पर्यायी यानी शुद्ध द्रव्य-स्वरूप (कन्टेंट) हो चुका है, वह किसी भाषा पर्याय (फॉर्म) की क द स्वीकार करके मौलिक और नित-नव्य सत्य का प्रवचन कैसे कर सकता है। महावीर तो जन्म से ही मति-श्रुति-अवधिज्ञान के धारक थे । वे जन्मजात योगी थे । वे सर्वतंत्र-स्वतंत्र चिद्पुरूष थे। उनका हर वचन और व्यवहार चिर स्वतंत्र चिति-शक्ति में से स्फूर्त चिद्वाणी, चिक्रिया और चिविलास ही हो सकता था। इसी से मेरे महावीर के कथनों और क्रियाओं में, उनके रूढ़ीवादी और पराम्पराग्रस्त परिजनों को स्थापित धर्म-मर्यादाओं के भंग, विरोध और विलोपन तक की भ्रांति हो सकती है। वे प्रश्न उठा सकते हैं कि क्यों मेरे महावीर के विचार और व्यवहार पूर्वगामी तीर्थंकरों की शास्त्रबद्ध चर्याओं से विसंगत और अतिरिक्त लगते हैं ? पर सत्ता तो अपने निज स्वरूप में ही नित-नूतन होती है, किसी भी भाषा और व्यवहार की परंपरागत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy