SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 365
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११ रूप में, सृष्टि-प्रकृति में जो नारी का विशिष्ट 'फंक्शन' (प्रवृत्ति) है, उसे भागवदीय योजना में स्वीकृति, समर्थन और तात्विक मूल्य प्राप्त होता है। यहाँ परम पुरुष ने प्रकृति में अपने आत्म-वैभव को अभिव्यक्ति देकर, उसे भी परम सार्थकता और कृतार्थता प्रदान की है। इस चरित्र के अंकन में और नारी के साथ महावीर के अन्य सम्बन्ध-सन्दर्भो में, मेरा कलाकार जैनों की कट्टर सैद्धान्तिक मान्यताओं तथा आचार-शास्त्रीय सीमा-मर्यादाओं से बाधित नहीं हो सका है। अनन्त पुरुष महावीर को सिद्धान्तों की जकड़ में कैसे बाँधा और उपलब्ध किया जा सकता है। उन्हें हम निरन्तर प्रवाही अपने आत्म-स्वरूप के अनुरूप ही अपने लिए उपलब्ध कर सकते हैं, और रच सकते हैं। 'जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी' और 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्' के अनुसार ही भगवान को हम अपने अभिन्न आत्मीय रूप में प्राप्त कर सकते हैं । कई और भी सत्यात्मक और तथ्यात्मक विभावनाएँ (कॉन्सेप्ट्स्) श्वेताम्बर और दिगम्बर स्रोतों से समान रूप से, अपनी कलात्मक आवश्यकता और भगवान के समग्र व्यक्तित्व की अपनी सृजनात्मक अवतारणा के अनुरूप, मैंने स्वतन्त्र भाव से चनी हैं। कोई साम्प्रदायिक पूर्वग्रह तो किसी कलाकार के साथ संगत ही नहीं हो सकता, केवल एक विधायक, सर्जनात्मक प्रेरणा ही ऐसे चुनावों की निर्णायक हो सकती है। मसलन महावीर के बड़े भाई नन्दिवर्द्धन का पात्र मुझे अनिवार्य नहीं लगा, सो उसे मैंने ग्रहण नहीं किया है। यशोधरा के साथ उनका सांसारिक विवाह मुझे अनुकूल नहीं पड़ा, सो महावीर की पुत्री प्रियदर्शना और जामात जामालि को उस सन्दर्भ में ग्रहण नहीं किया है। तीर्थकर काल में इन पात्रों का प्राकट्य किसी अन्य रूप में ग्राह्य हो सकता है। केवल दो सर्वथा कल्पित पात्र मैंने रचे हैं, जिनका उल्लेख यहां नहीं करूंगा। क्योंकि उनका यहाँ अनावरण, रचना में उनके वास्तविकता-बोध को हस्व कर सकता है, और पाठक की रसधारा को आघात पहुंचा सकता है। कोई भी रचनाकार आखिर अपनी कल्पना-शक्ति से ही किन्हीं पौराणिक या ऐतिहासिक महापुरुष की सांगोपांग रचना कर सकता है। चाहे वाल्मीकि या तुलसी की रामायण हो, चाहे वेद व्यास का महाभारत, चाहे कालिदास का शाकुन्तल, और चाहे जैन महाकवियों और आचार्यों द्वारा रचित तीथंकरों के जीवन-वृत्त हों, उनमें आलेखित समी प्रमुख या सहयोगी पात्र उनकी सृज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy