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उपस्थित कर, महावीर और यशोदा का परम मिलन तो आयोजित किया, पर किसी सांसारिक प्राणिक विवाह में उनको बांधकर, उनके उस अनन्त मिलन को सीमित करना मेरे कवि-कलाकार को न भाया । देह के तट पर आत्मिक भाव से भरपूर मिल कर भी, सांसारिक स्तर पर वे एक-दूसरे से बिदा ले गये। तब आत्मा के स्तर पर एक अन्तहीन रोमांस में उनका मिलन अनन्त हो गया । जरा, मृत्यु, रोग, शोक, वियोग को दैहिक-मानसिक उपाधियों और व्याधियों से परे, भूमा के भीतर उनका एक शाश्वत मिलन घटित हुआ। यह अधिक कलात्मक, सुन्दर, शिव, और महावीर के व्यक्तित्व के उपयुक्त लगता है। उनके परिवेश की अनेक स्त्रियों के साथ उनके सम्पर्क और मिलन को मैंने रोमानी भूमा के इसी बहुआयामी लोक में घटित किया है। उनके ऐसे सारे सम्बन्धों और व्यवहारों में मैंने परम वीतराग और पूर्ण अनुराग की संयुक्त (इन्टीग्रल) भूमिका उपस्थित की है । ठीक वही, जो किसी सर्व-वल्लभ पुरुषोत्तम या तीर्थकर में सहज सम्भव होती है । वे किसी रूढ़ या भीरु नैतिकता से चालित नहीं होते, विशुद्ध और डायनामिक (प्रवाही) आत्मालोक से उज्ज्वल होता है उनका समूचा चारित्र्य । वह एक अविकल्प (इन्टीग्रेटेड) सम्यक् चारित्र्य होता है। ___जैन ग्रन्थों में उपलब्ध महावीर की जीवनी में सती चन्दना का प्रसंग ही सबसे अधिक हृदय-स्पर्शी है। कृष्ण, बुद्ध और क्रीस्त के जीवन-चरितों में ऐसे मार्मिक प्रसंग बहुतायत से मिलते हैं । इसका कारण मुझे यही लगता है कि महावीर का जीवन और प्रवचन, बौद्धागमों के भी बहुत बाद में ही लिपिबद्ध हो सका। तब तक उनको अनुशास्ता परम्परा के श्रमणों ने उनके वास्तविक जीवन-तथ्यों को बहुत हद तक बनी-बनाई, कठोर (रिजिड) आचार-संहिताओं तथा सिद्धान्तों से ढांक दिया था। इसीसे बुद्ध की तरह महावीर का कोई महाभाव व्यक्तित्व हमारे सामने नहीं आता। मुझे बार-बार प्रतीति हुई है, कि स्वयम् उन भगवान की अचूक कृपा के फल-स्वरूप ही, मेरे कवि की कलम से उनका वह विलुप्त महाभाव स्वरूप इस कृति में किसी कदर मूर्त और साकार हो सका है । जो भगवान समस्त चराचर जगत् के एकमेव आत्मीय होकर रहे, उनका व्यक्तित्व ऐसा मावहीन, रसहीन और रूक्ष हो ही कैसे सकता है, जैसाकि वह जैनागमों में उपलब्ध होता है । वे मेरे मन केवल जड़ीभूत सिद्धान्तों और आचार-संहिताओं से गढ़े हुए महावीर नहीं हैं, जीवन्त, ज्वलन्त और प्रवाही महावीर नहीं, जो कि उन्हीं
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