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________________ अतिमानव पूजा-मूर्ति ही हाथ आती है। वह आज के मनुष्य को, आज के इस भीषण जीवन-संग्राम के बीच एक अभीष्ट तृप्ति और समाधान कैसे दे सकती है ? उन भगवान का परम अनुग्रह हुआ, कि उन्होंने मेरे कवि के हाथों एक जीवन्त मनुष्य के रूप में, अभी और यहाँ के इस लोक में प्रकट होकर चलना स्वीकार किया है। मेरी इस कृति में, उनकी मानवता ही जीवन की नग्न असिघारा पर चलती हुई, अनायास अतिमानवता में उत्तीर्ण होती चली गई है। कोई भी सर्जक कलाकार सम्प्रदाय-बद्ध तो हो ही कैसे सकता है । इसी से मेरे महावीर जैन-अजैन, दिगम्बर-श्वेताम्बर, ब्राह्मण-श्रमण के सारे भेदों से परे, विशुद्ध विश्वात्मा महावीर हैं। इस सृजन में ब्राह्मण वाङ्गमय, जन वाङमय या इतिहास का उपयोग ने केवल साधन-स्रोतों के रूप में किया है। उनमें से किसी का भी सटीक प्रतिनिधित्व करने का दावा मेरा नहीं है। मेरे महावीर सम्भवतः वे यथार्थ महावीर हैं, जैसे वे यहाँ जन्मे, जिये, चले और रहे। वे मेरे मन अत्यन्त निज-स्वरूप, निजी महावीर हैं। दिगम्बर और श्वेताम्बर आगम तथा इतिहास में उपलब्ध तथ्यों का चुनाव मैंने नितान्त अपनी सृजनात्मक आवश्यकता के अनुसार किया है। किसी प्रकार का साम्प्रदायिक पूर्वग्रह मेरे यहाँ लेश मात्र भी सम्भव नहीं था। मेरे कलाकार की सत्यान्वेषी दृष्टि, महाभाव चेतना, और सौन्दर्य-बोध में जो तथ्य अनायास आत्मसात् हो गये, उन्हीं का उपयोग मैंने किया है। इस सन्दर्भ में उदाहरण के साथ कुछ स्पष्टीकरण जरूरी हैं। मसलन श्वेताम्बर आगमों में कथित भगवान के ब्राह्मणी के गर्भ से क्षत्राणी के गर्भ में स्थानान्तर का मैंने मात्र प्रतीकात्मक उपयोग किया है। यानी वेद-च्युत और यज्ञ-भ्रष्ट ब्राह्मणत्व की महावेदना इस ब्राह्मणी के भीतर ही उत्कटतम हो सकी, और उसीके उत्तर में मानो यज्ञ-पुरुष महावीर के ब्रह्मतेज ने पहले उसके हृदय-गर्भ में प्रवेश कर उसे समाधीत किया । और अगले ही क्षण वह स्वर्ण-सिंहारोही यज्ञपुरुष उसे क्षत्रिय-कुण्डपुर की ओर घावमान दिखायी पड़ा। इस प्रकार ब्राह्म तेज और क्षात्र तेज के संयुक्त अवतार महावीर ने एक बारगी ही ब्राह्मणी और क्षत्राणी दोनों माँओं के गर्भ को कृतार्थ किया। इसी प्रकार श्वेताम्बरों की मान्यता है कि महावीर ने विवाह किया था, दिगम्बरों के अनुसार वे कुमार-तीर्थंकर ही रहे । विवाह को उन्होंने अंगीकार न किया। मैंने एक उपयुक्त प्रसंग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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