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________________ ३४४ आम ही काम आत्म ही काम्य, आत्म ही मेरा एकमात्र विलास, संभोग, मैथुन और मिलन हो कर रहे । • और समय के अविभाज्य मुहूर्त में मेरी आत्मा एक अपूर्व, अननुभूत ज्ञानालोक से उद्भासित हो उठी । • मनुष्य लोक में विद्यमान तमाम पर्याप्त और व्यक्त मन वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणियों के मनोगत भाव मेरी अन्तश्चेतना में प्रत्यक्ष हो उठे ! 'क्या इसी को मन:पर्यय ज्ञान कहते हैं ? ' और मेरे सस्मित ओठों से प्रस्फुटित हुआ : 'तथास्तु शकेन्द्र ! - मित्ती मे सव्व भूदेसु : वैरं मज्झणं केणविः सर्वभूत मेरे मित्र हैं : किसी से भी मुझे वैर नहीं । अणु-अणु की आत्मा में अवगाहन करेगा महावीर '!' और मैंने उस सूर्यकान्त शिलासन पर देखा : ऊवों में उन्नीत तेज की एक नग्न तलवार की तरह दण्डायमान वह पुरुष, निश्चल कार्योत्सर्ग में निस्तब्ध, निस्पन्द हो गया है ।' सूर्य की अन्तिम किरण उसके मस्तक के आभा- वलय में आ कर डूब गई । सायाह्न की घिरती छायाओं में दूर-दूर जाता जन-रव, आसन्न रात्रि के घनान्धकार में खो गया । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only oo www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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