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शक्रेन्द्र का गम्भीर स्वर सुनाई पड़ा : 'हे त्रैलोक्येश्वर, हे निखिल के एकमेव आत्मीय, अवसर्पिणीकाल के पुरोधा तीर्थंकर, शब्द में सामर्थ्य नहीं कि तुम्हारी महिमा का गान कर सकें। सृष्टि का कण-कण दारुण दुःख के दुश्चक्र में पिस रहा है। संसार की पीड़ाओं का अन्त नहीं। पारस्परिक राग-द्वेष, वैरमात्सर्य के वशीभूत हो अज्ञानी जीव एक-दूसरे का घात, पीड़न, शोषण कर रहे हैं । जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, वियोग से असंख्य आत्माएँ सन्तप्त हैं। अबूझ कषायों के निरन्तर कषयन से हमारी चेतनाएँ सदा आरत, आहत और घायल रहती हैं । हमारी आत्मा के अभिन्न, एकमेव वल्लभ प्रभु, चिर काल से सन्त्रस्त इस लोक का त्राण करो। इसे अपने चरणों में अभय-शरण दे कर, मुक्ति और जीवन का कोई अपूर्व मार्ग प्रशस्त करो' . . !'
• . 'अपने ओठों पर सहसा ही एक प्रसन्न स्मित को कमल की तरह खिल आते देखा।
· · ·अपने भीतर के अथाह नीरव में ध्वनित सुनायी पड़ा : ० इस क्षण से मैं न रहूँ : केवल सत्य शेष रहे : मेरे तन, मन, वचन में आरपार वही प्रकाशित हो उठे। केवल वही मुझ में जले, बोले, चले । ० इस क्षण से त्रिलोक और त्रिकाल के चराचर भूत मात्र मेरे तन, मन, वचन से अघात्य हो जायें। अणु-अणु के बीच मैं 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' भाव से विचरूँ : उनके साथ तदाकार हो कर रहूँ। ० इस क्षण से पदार्थ मात्र मेरी दृष्टि में स्वयम् अपने आपका हो कर रहे। अपनी ईहा-तृप्ति की चाह के वशीभूत हो कर उस पर मैं बलात्कार न करूँ। माटी, जल, तृण तक को मैं उनकी अनुमति से ही ग्रहण करूँ। वे जब मेरा वरण करें, तो मैं उनका संवरण हो रहूँ। ० इस क्षण से मेरे लिए, पल-पल पीड़ित 'मैं' और 'मेरा' समाप्त हो गया। सर्व को उनके स्वधर्म में निर्बाध और स्वाधिकृत रहने दूं। न मैं उन पर अधिकार करूँ, न वे मुझ पर अधिकार करें। न मैं उन्हें परिग्रहीत करूँ, न वे मुझे परिग्रहीत करें। तन, मन, वचन से क्षण-क्षण संचेतन, अप्रमत्त रह कर, वस्तु और व्यक्ति मात्र के साथ परिग्रह का नहीं, परस्परोपग्रह का ही आचरण मुझ से हो। ० इस क्षण से मेरा रमण केवल अपने में हो, आत्मा में हो, अन्य और अन्यत्र में नहीं। स्व-रमण होकर ही सर्वरमण हो रहूँ। आत्म ही लिंग, आत्म ही योनि,
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