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वाद्यों में करुण-कोमल रागिनियाँ प्रवाहित होने लगीं। · · ·और पाया कि पृथ्वी और स्वर्गों के तमाम समुद्रों और सरोवरों की संयुक्त जलधाराएँ महावीर का अभिषेक कर रही हैं। पाद-प्रान्त में विविध मंगल-द्रव्यों की सम्पदाएँ भींग रही हैं। धूपदानों से उठती सुगन्धित धूम्र-लहरियां एक अद्भुत पावनता से वातावरण को व्याप्त कर रही हैं।
इन्द्रों के उड़ते हुए चंवर धवल हंस-पंक्तियों की तरह दिव्य वीणाओं की सुरावलियों में बहने लगे। चित्रा-बेलियों से बरसते रंगारंग फूल हवा में चित्रसारियां करते तिरोमान होने लगे। देवांगनाओं की अंजलीकृत लावण्य-प्रभाएँ कपूर-सी उड़ती दिखायी पड़ीं। ..
· · 'मेरे भीतर के अगाध में से चरम उल्लास का एक रोमांचन उठ कर मेरे अंगांगों को विगलित कर चला। • मुझ पर बरसती, प्रकृत अभिषेक की जलधाराएँ सहसा ही एक सुनील नीहार का बितान बन कर मेरे चारों ओर छा गयीं। एक निस्तब्ध नीलिमा की आभा के बीच मैंने अपने को एकाकी पाया। . . सहसा ही मेरी देह पर से उतर कर, किरीट-कुंडल, केयूर, मुक्ताहार और सारे वस्त्राभूषण झरती पत्तियों की तरह झड़-झड़ कर महावीर के पाद-प्रान्त में आ गिरे !
• • 'उस सूर्यकान्त शिला के आसन पर, मैंने किसी वयातीत नग्न शिशु को, एक निर्दोष निर्विकार पारदर्श प्रभा के रूप में अवस्थित देखा।
हठात् स्तब्धता की वह नील नीहारिका विलीयमान हो गयी। · · असंख्य कण्ठों की त्रिलोक-व्यापी जयकारे गूंज उठीं। छोड़े हुए सर्प-कंचुक जैसे निष्प्रभ वस्त्रालंकारों को कुल-महत्तरिका ने अपने हंस-धवल वसन में समेट लिया।
• • • मैंने देखा कि मेरी कुंचित कमनीय अलकावलियाँ नागिनियों-सी उछल कर, मेरे सारे मस्तक को घेर कर लहरा उठी हैं। और चारों ओर घिरी दिव्य
और पार्थिव कामिनियों के हृदय मोहिनी से व्याकुल हो उठे हैं। ' . . ___. महावीर किंचित् मुस्कुरा आये। · · ·और अगले ही क्षण अपने दोनों हाथों की पंच-मुष्ठिकाओं से एक ही झटके में उन मोहान्धकार-भरे केशों का लोच कर, उन्होंने उन्हें हवा में उछाल दिया। सहस्रों सुन्दरियों के अंचलों, मृणाल बाँहों और इन्द्रों के रत्न-करण्डकों ने उन्हें झेला। · · दूर कहीं क्षीर-समुद्र की लहरों में वे केशावलियाँ तरंगित दिखायी पडी। . .
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