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________________ ३३० · · 'हाय, मेरी बाँहें छोटी पड़ गईं ! - - ‘मेरी हड्डी-हड्डी तड़क रही है, और मैं चूर-चूर हुई जा रही हूँ। तुम्हें पकड़ पाने में असमर्थ ! . . 'भीतर-बाहर की दृष्टि मात्र इस भय और असह्यता में मुंद गई है। · · · कहाँ है मान तू, मेरे लालू . . . ! हाय, तूने यह कैसा वज्राघात दे कर खोल दी मेरी आँखें। · · यह क्या देख रही हूँ. . एक ही छलांग में पार गया तू यह खन्दक । · · ·और उस पार एक नीली रोशनी के तट पर अकेला खड़ा है तू । हमारे बीच अपरिमेय अलंघ्य फैली है यह खाई। मान, इससे बड़ा वियोग तू मझे क्या दे सकता था। पूत्र हो कर ऐसा हत्यारा, निर्दय हो गया तू ? जीते जी, खुली आँखों, चलती साँसों के बीचत मुझे मौत के इस अँधियारे निर्जन तट पर अकेली छोड़ गया. . . ? हाय, अब कहाँ जाऊँ. . क्या करूँ - ‘मान' : 'मान' - ‘मान : · · कहाँ अदृश्य हो गया तू?' 'अरे ऊपर, इधर, मेरी ओर देखो माँ, यहाँ खड़ा तो हूँ मैं। देखो न, सर्वार्थसिद्धि के इन्द्रक-विमान का ध्वजा-दण्ड नीचे रह गया। उससे भी बारह योजन ऊपर आ कर, देखो, यह ईषत्-प्रारभार नाम की आठवीं पृथ्वी है। नरकों की सात पृथ्वियों से ऊपर, सर्वार्थ सिद्धि तक के सारे लोक पृथ्वी तत्त्व से उत्सेधित होकर अन्तरिक्षों में ही उप-पृथ्वियों पर अवस्थित हैं। पर तीन लोक के मस्तक पर, यह जो सिद्धालय है, यह फिर विशुद्ध पृथ्वी से आलिंगित है। मूलगत ठोस पार्थिवता ही यहाँ परम दिव्यता में परिणत हो गई है। मक्त सिद्धात्मा यहाँ पृथ्वी के साथ अन्तिम और अभेद रूप से संयुक्त हो गये हैं। दोनों ही पूर्ण स्वरूपस्थ होने से, महासत्ता यहाँ भेद-विज्ञान से परे निजानन्द में लीन हो गई है। लोक-शीर्ष पर आरूढ़ यह प्राग्भार पृथ्वी ही मोक्षधाम है, निर्वाण-भूमि है। इसके मध्य में उत्तान श्वेत छत्र के समान, अर्द्धचन्द्राकार सिद्धशिला विद्यमान है। यह उत्तरोत्तर ऊपर की ओर अपसारित होती हुई त्रिलोक के चूड़ान्त में अंगुल के असंख्यातवें अंश परिमाण में तनु, सूक्ष्मतम हो गई है । अपने छोर पर यह तीसरे तनु-वातवलय को भेद गई है। उस वातवलय की सघनताओं में निर्बन्ध अवगाहना करते हुए अनन्त कोटि सिद्धात्मा नित्य शुद्ध, बुद्ध, आत्म-स्वरूप में लीन, अपने ही भीतर के अनन्तों में निर्बाध परिणमन शील हैं । अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य, अनन्त सुख आदि अनन्तानन्त गुण और शक्तियाँ उनमें स्वतःस्फूर्त भाव से निरन्तर सक्रिय हैं। इसी को सर्वकाल के द्रष्टा, ज्ञानी और शास्ता मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण आदि संज्ञाओं से अभिहित करते आये हैं। · · इन मुक्तात्माओं के सुख की कल्पना कर सकती हो, माँ ?' . . . 'देख लाल, तू मेरे कितना पास आ गया फिर। मैं तो केवल तेरा यह खलौना मुखड़ा देख रही हूँ। इस सुख से बड़ा तो कोई सुख माँ के लिए नहीं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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