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कहते हैं। इस प्रवीचार के सूक्ष्मतर और निविडतर होते स्तरों को देख कर स्तब्ध हूँ। काम स्वयम् ही अपनी सघनता में तीव्रतर होता हुआ, ऊर्ध्वतर अनुभूतियों में रूपान्तरित होता चला जाता है। सौधर्म और ईशान स्वर्ग के देव-देवियाँ मानवों की तरह ही स्थूल काय-मैथुन से तृप्ति पाते हैं। उससे ऊपर के सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के देव, देवांगनाओं के स्पर्श मात्र से परम प्रीति को प्राप्त होते हैं। उससे ऊपर ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ स्वर्गों के देव अपनी देवियों के शृंगार, आकृति, अंग-भंग और भाव-भंगिमा, विलास-चातुरी, मनोज्ञ वेष तथा मोहक रूप के देखने मात्र से आल्हाद-मग्न हो जाते हैं। · ·और यह क्या देख रहा हूँ, सामने शैया में लेटा वह देव नैपथ्य में कहीं दूर अपनी प्रिया की नूपुर-झंकार सुन कर ही गहन रमण-सुख की मूर्छा में लीन हो गया है । — हाँ, यह शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार स्वर्ग के देवों का कीड़ा-लोक है। यहाँ के देव, देवांगना के संगीत, कोमल हास्य, ललित कथा और भूषणों के मृदु रव को सुन कर ही एक अद्भुत विदग्ध सुरति-समाधि में लीन हो जाते हैं। इससे भी ऊपर जा कर आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्प के देव अपनी अंगना का मन में संकल्प करने मात्र से, उसके साथ संयुक्ति का सुख पा जाते हैं। प्रिया के स्मरण मात्र से, यहाँ स्मर-देवता आत्मलीनता की कोटि का मैथुन-सुख पा जाते हैं। रति का सुख यहाँ समाधि के अनन्त सुख-राज्य का स्पर्श करता है। इससे ऊपर के अनुत्तर स्वर्गो, सर्वार्थ-सिद्धियों और नव-वेयकों में बहिर्मुख काम की वेदना ही तिरोहित हो जाती है। प्रतिकार की आवश्यकता से परे उनका प्रवीचार यहाँ अन्तर्मुख और स्वायत्त हो जाता है। उनकी साहजिक आत्मस्थिति में, सुरति-सुख स्वयमेव ही उनके भीतर निरन्तर प्रवाहित रहता है। .. कामिक चेतना की इन सारी स्थितियों और भूमिकाओं में इस क्षण, संयुक्त रूप से अपने को रम्माण अनुभव कर रहा हूँ, माँ । पर इनके भी सारे प्रस्तरों में संसरित होता हुआ, मैं इनके अन्तिम छोर पर आ खड़ा हुआ हूँ। .. और सामने देख रहा हूँ-मृत्यु की अतलान्त अभेद्य, अँधियारी खन्दक । यह जब तक है, परमतम काम-सुख का अन्त भी वियोग और विच्छेद में होना ही है। चरम तमस के इस राज्य को भेदे बिना, मेरी चेतना को विराम नहीं, मा. . .!'
___ 'रुको, रुको मान, तुम इस समय बड़े दुर्दान्त और भयंकर दिखाई पड़ रहे हो। हर पार्थिव आधार से उच्छिन्न, इस खन्दक में कूद पड़ने को उद्यत लग रहे हो। : 'मान, इस किनारे को सहना, देखना, मेरी सामर्थ्य से बाहर है। . . लौट आओ बेटा · · ·लौट आओ· · · | तुम्हारी माँ की छाती टूटी जा रही है।
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