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· · दिव्यांग जाति के कल्प-वृक्षों के ज्योतिर्मय वन सर्वत्र दिखाई पड़ते हैं । जिनके तले कामना करते ही, मनचाहे दिव्य भोजन, दिव्य वसन तथा अन्य सारी ही दिव्य भोग-सामग्रियाँ इन देवों को प्राप्त हो जाती हैं। छहों ऋतुओं के वातावरण, प्रभाव, फल-फूल यहाँ के आकाश-वातास और कानन-उद्यानों में सदा सुप्राप्त हैं। रक्त-मांस, अस्थि-मज्जा से रहित इन देव-देवांगनाओं के शरीर विशुद्ध पुद्गल द्रव्य की तरह प्रवाही हैं । नितान्त लचीले और मनोभावी हैं। इनके दिव्य देह-बन्ध में तन-मन मानो एकाकार हो गये हैं। इनके शरीरों के बीच वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श भी बाधक नहीं, पारस्परिक संयोग में साधक होते हैं। मनचाही विक्रिया करने में ये सक्षम होते हैं। एक शरीर में से ठीक उसी के अनुरूप सहस्रों छोटे-बड़े मनचाहे शरीर ये बना लेने में समर्थ हैं। दिव्य कक्ष की उपपाद शैया में स्वयंभु प्रक्रिया से सहसा ही ये अंगड़ाई भर कर उठ आते हैं : और इस प्रकार अपने पूर्णकाय रूप में ही ये जन्म लेते हैं। तब किसी भी देव की एकान्त काम्या देवांगना, अन्यत्र जन्म लेकर, तत्काल उसके सम्मुख आ खड़ी होती है। जन्म से देहपात तक इनके शरीर अक्षय सौन्दर्य-यौवन से मंडित रहते हैं। . .'
___ 'अरे मेरा मान भी तो ऐसा ही है, वह किस देव या इन्द्र से कम है . . . ?'
'.. · सागरों पर्यन्त ऐसे विपुल वैभव-भोग में जीकर भी, ये देव बेचारे अतृप्त ही रह जाते हैं। और काल के भीतर बुद्-बुद् की तरह विलीन हो जाते हैं । ऐसी अतृप्ति और मृत्यु से मुझे सीमित करोगी माँ ? क्षय और विनाश की इस परम्परा में जुड़े रहने को अब मैं तैयार नहीं । . . काम को परा-कोटि पर भोग कर भी, क्या ये पूर्णकाम हो सके हैं ? काम जितने रूपों में तृप्ति चाह सकता है, वे सारे आयाम इन्हें सुलभ हैं। एक प्रमुख देवांगना या इन्द्राणी, फिर कई-कई देवियाँ, इनकी भोग-शैया में बिलसती रहती हैं। इन देवांगनाओं के प्रासादों से भी ऊँचे इनकी वल्लभाओं के भवन होते हैं, जो इनकी विदग्ध भाव-चेतना को एक विलक्षण तृप्ति देती हैं। और फिर होती हैं सहस्रों गणिकाएँ, जो इन देवों के उद्दामतम देह-काम और मनोकाम को निर्बन्ध, उच्छखल आलोड़नों और विलासों से तृप्त करती हैं। · · इन देव-निकायों में, उच्च से उच्चतर स्वर्गों के देव-देवांगनाओं का काम-सुख और ऐन्द्रिक सुख सूक्ष्मतर और गहिरतर होता चला जाता है। अपने मैथुन को ये प्रवीचार
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