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________________ तेरे चेहरे में वह सारा सुख समाया है। फिर किसी कल्पना की मरीचिका में क्यों पडूं !' ___ 'यह कल्पना की मरीचिका नहीं, माँ। मेरे भीतर इस क्षण जो प्रतीयमान है, वही कह रहा हूँ। तुम मुझे चक्रवर्ती देखना चाहती हो न? पर उसके आगे भी सुख के कई सोपान हैं। चक्रवर्ती के सुख से भोग-भूमिज मनुष्य का सुख अनन्त गुना है। उससे अनन्त गुना सुखी धरणेन्द्र है। उससे अनन्त गुने सुख का भोगी देवेन्द्र है। उससे अनन्त गुने सुख में अहमीन्द्र विलास करता है। विगत, आगत, अनागत की इन सारी सत्ताओं के सुख को एकत्र किया जाये, तो उससे भी अनन्त गुना सुख मोक्ष में आसीन सिद्धात्मा एक क्षण में भोगते हैं। सत्यतः यह गुणानुगुणन भी उस सुख का सही आयाम प्रकट नहीं करता। क्योंकि अहमीन्द्रों तक के सारे सुख पराश्रित हैं, इन्द्रियजन्य हैं, सो आकुलतामय हैं। पर सिद्धात्मा का सुख, स्वायत्त, आत्मोत्थ, निराकुल, आत्मन्येवात्मानातुष्टः हैं। इसी से वह वचन और गणना से अतीत मात्र अनुभव्य है। . .' ‘ऐसे सुख को तू मेरी गोद में लेटा अनुभव कर रहा है, फिर कहाँ जाने की पड़ी है तुझे ?' 'नहीं माँ, यह उस सुख की अनुभूति नहीं, उसमें स्थिति नहीं, यह मात्र उसकी प्रतीति है। चाहो तो इसे सम्यक्-दर्शन कह लो। इस दर्शन को सम्यक्-ज्ञान बनना होगा। और उस सम्यक-ज्ञान को चारित्र बन जाना होगा। यानी इस सुख में ही तब निरन्तर रमण और विचरण होगा। 'कोई अन्त भी है तेरे इन उलझावों का! सभी श्रमणों और शास्त्रों से यही गाथा सुनते मैं थक गई हैं। कोई उस मोक्ष में जा कर आज तक लौटा तो नहीं। कौन साक्षी दे कि ऐसा कोई सुख कहीं है ?' ___ हो सके तो वह साक्षी, मैं सदेह यहाँ उपस्थित करना चाहता हूँ।. . . जाने क्यों, मुझे ऐसा लग रहा है, माँ, कि यह निर्वाण भी अन्तिम उपलब्धि नहीं। मेरी यात्रा यहीं समाप्त नहीं दीखती। · · ·इस निर्वाण से भी आगे की एक स्थिति मेरी अभीप्सा में झलक रही है। भेद-विज्ञान से परे एक अद्वैत महासत्ता में स्थिति : जिसमें संसार और निर्वाण एकाकार हैं। वे परस्पर एक-दूसरे में अन्तर-संक्रांत हैं। - अरे माँ, देखो न, मैं निर्वाण को अनिर्वाण जगत में पग-धारण करते देख रहा हूँ। मैं अपने भीतर सदेह सिद्धात्मा को लोक में शाश्वत संचरण करते देख रहा हूँ ! ..." Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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