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___ 'मैं तुम्हारे इस खण्ड और अखण्ड की बकवास से तंग आ गई। खण्ड और भखण्ड, लोक-लोकान्तर माँ के लिए केवल तुम हो । तुम, जिसे मैंने अपने पिण्ड में धारण कर, पिण्ड दिया, कि तुम सामने खड़े हो और यह सब ज्ञान बघार रहे हो।'
_ 'पर इस पिण्ड में ही ब्रह्माण्ड है, बाहर तो कहीं नहीं। तब जाना-आना तो एक प्रयोजनकृत उपचार मात्र है। आख़िर, जाकर भी कहाँ जाऊँगा। जा रहा हूँ, तो इसी लिए न, कि जाने-आने की उपाधि ही सदा को मिट जाये। तुम्हारा
और मेरा मिलन अट्ट हो जाये। वियोग सदा को समाप्त हो जाये, और योग में हम सदा को आवागमन से परे संयुक्त हो जायें।' ___ 'यह सब मेरी समझ के बाहर है। जो होना हो, करना हो, यहाँ करो, मेरी गाँखों तले। · · · देखू, कैसे जाते हो! मैं द्वार रोक कर खड़ी हो जाऊँगी, इस कक्ष का। क्या मुझे धकेल कर जाओगे? तुम्हें रुक जाना पड़ेगा; मेरी छाती को सामने लेटी देखोगे, तो उसे रौंद जाओ, यह तुम्हारी हिम्मत नहीं होगी।'
'जब तक, माँ, हम इस खण्ड और द्वैत में हैं, तब तक रुकना और रोकना क्या हमारे-तुम्हारे बस का है। मान लो कि इसी क्षण मेरा या तुम्हारा देहपात हो जाये, तो क्या हम एक-दूसरे को रोक कर, बाँध कर रख सकेंगे? क्या नहीं चाहोगी कि काल और कर्म-चक्र की इस अधीनता से मुक्त हो कर, रोकने-रुकने की लाचारी से परे, मैं सदा तुम्हें सुलभ हो रहूँ ? · . .
'माँ के हृदय की विवशता को माँ हो कर ही समझा जा सकता है, मान । चाहे तुम अरिहन्त हो जाओ, सर्वज्ञ हो जाओ, माँ के प्राण की इस विकलता को तुम कभी नहीं समझोगे। किस पुरुष ने कभी नारी की इस अन्तिम विवशता को समझा है ? हमारे गर्भ से पिण्ड धारण कर, तुम पुरुष सदा ही हमारे गर्भ को धोखा दे गये, ठुकरा गये। तुम्हारी इस स्वार्थी मुक्ति को माँ का प्रवंचित हृदय न कभी समझा है, न समझना चाहेगा।'
'मुक्ति अपनी ही नहीं, सभी की तो चाहता हूँ, माँ। मेरी ही नहीं, सब की मां हो तुम, सर्व चराचर की माँ। यदि उन सब के कष्ट की पुकार से पीड़ित हो कर, उन सबके त्राण के लिए जाना अनिवार्य हो गया है, तो क्या मेरी जगदम्बा माँ उसे नहीं समझेगी ? · . . ' ___'मान, समझ मेरी समाप्त हो गई। तुझ से आगे अब वह नहीं जा पा रही, तो मैं क्या करूँ ?'
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