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'सब को छोड़ो, पर क्या मेरे ही हृदय की व्यथा और विवशता को अनदेखा करोगी? रात-दिन जो वेदना मेरे पोर-पोर को जला कर भस्म किये दे रही है, उसे तुम्हीं न समझोगी, तो और कौन समझेगा ?' ___ 'तुझे भी वेदना हो सकती है, यह तो मैं कभी कल्पना भी न कर सकी। फिर अपने मन की बात तो तू मुझ से कभी कहता नहीं। बोल बेटा, मन खोल कर कह, सब सुनूंगी।' ...... एक आधी रात अचानक एक चीख सुनाई पड़ी थी। मानो भूगर्भ से आई हो। मानो तुम्हारे ही गर्भ से आई हो। और तब मुंह-अँधियारे ही मेरा घोड़ा मुझे यहाँ से निकाल ले गया था वहाँ, जहाँ से वह चीख़ आई थी। अपने घोड़े पर से ही मैंने यज्ञ-वेदी पर यूप से बँधा एक घोड़ा देखा : एक वृषभ देखा। उनकी मूक भयात आँखों से आँसू बह रहे थे । और वे थरथराते हुए सामने धधकते हवन-कुण्ड की सर्वभक्षी लपटों को ताक रहे थे। • • •जिनमें उन्हें अभीअभी झोंक दिया जायेगा। · · ·और मैंने असंख्य पशुओं तथा मानवों की भयाकुल, अवश, आँसूभरी आँखों को अपनी ओर निहारते देखा। • 'मेरी अस्थियाँ तड़क उठीं। इस एक शरीर की सीमा असह्य हो गई। वे सारे शरीर, वे सारे प्राण मैं हो गया। और तब जो पुंजीभूत संत्रास मैंने अनुभव किया, उसकी कल्पना कर सकती हो, माँ ?'
'तेरी जनेता हूँ, तो तेरे साथ ही वह सब अनुभव करना चाहती हूँ।'
'. . 'ठहराव तो बचपन से ही मैं कहीं अनुभव न कर सका। जी में एक उचाट लेकर ही मेरा जन्म हुआ है। ऐसी उच्छिन्नता, कि अपरिच्छिन्न हुए बिना पल भी चैन नहीं। · · ·पर उस दिन उन प्राणियों की आँखों के वे सजल किनारे, मुझे लोक के अन्तिम समुद्रों के पार खींच ले गये। · · ·तब से इस शरीर में, इस महल में, तुम्हारे लोक में ठहरना अशक्य हो गया है। अपनी ये साँसें तक अपनी नहीं लग रही हैं ! जैसे अपने से ही विछुड़ गया हूँ। यह असीम अवकाश और काल मुझे अवलम्ब नहीं दे पा रहा। अन्तरिक्ष स्वयम् जैसे छिन्न-भिन्न होकर मुझ में शरण खोज रहा है। सोचो माँ, कैसा लगता होगा मुझे · · !' ___ 'सोचना क्या है, वह तो सामने देख रही हैं. • • !'
'ये दूरियाँ, दिगन्त, क्षितिज, ये सारे विस्तार मुझे बरबस खींचे ले रहे हैं । खड़ा नहीं रहा जाता। या तो इन्हें अपनी बाँहों में समेट लूं, या इनमें सिमट जाऊँ। • बालपन से ही इन दूरियों को देखकर मेरा जी बहुत उदास हो जाता
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