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मैं सिद्धालय से फिर लौटूंगा
· · ·और तब लौटकर देखा कि स्फटिक के भद्रासन पर मां आँखें मूंदे अधलेटी-सी हैं।
'माँ, उठो न, ऐसे क्यों लेट गईं ? क्यों उदास हो गईं ?'
उठ कर कुछ बैठती-सी माँ की आँखों की कोरों पर पानी की लकीरें उजल आई। विस्फारित नयन वे मुझे देखती रह गईं।
'माँ, बोलो। · · ·बोलोगी नहीं मुझ से !' 'बोलने को अब बचा ही क्या है ? · . .' "फिर भी, जी में जो हो, मुझ से कहो . . !'
'. ' 'तुम नहीं जा सकते, मान, तुम कहीं नहीं जा सकते। मेरी आँख से तुम ओझल हो जाओ, यह होने नहीं दूंगी।'
'तो मत होने दो। पर पूछता हूँ, तुम मेरे लिए और मैं तुम्हारे लिए, क्या आँख पर ही समाप्त हैं ? आँखों से परे, जो हम एक-दूसरे को सदा सुलभ हैं, वह नहीं देखोगी?'
_ 'तुम्हारा यह ज्ञान सुनते-सुनते मैं थक गई, लालू। मुझे नहीं चाहिये तुम्हारा ज्ञान : मुझे मेरा मान चाहिये। और उसे तुम मुझ से छीन लो, यह नहीं होने दूंगी। नहीं, तुम नहीं जा सकते . - तुम मुझे छोड़ कर कहीं नहीं जा सकते । ..'
माँ का स्वर रुआँसा हो आया।
'सोचो तो माँ, कहाँ जा सकता हूँ मैं ? इसी लोक में तो हम-तुम हैं, सदा थे, सदा रहेंगे साथ । लोक से परे तो सिद्धात्मा भी नहीं जा सकते। और यह लोक तो तुम्हारे और मेरे ज्ञान में अखण्ड समाया है । खण्ड को ही देखोगी, अखण्ड को नहीं देखोगी, मां?'
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