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________________ में ही अहिंसा है। वह अस्तित्व की शर्त है। अस्तित्व का विनाश कदापि काल सम्भव नहीं। तो विकास के दौरान लोक के सम्पूर्ण अभ्युदय के लिए, सम्पूर्ण भहिंसा का उदय अवश्यंभावी है। विशुद्ध सत्ता, स्वभाव से ही अहिंसक है, इसी से तो जब अरिहन्त स्वयम् सत्ता-स्वरूप हो जाते हैं, तो वे मूर्तिमान अहिंसा बन कर लोक में विचरते हैं। तब समस्त जड़-जंगम प्राणी उनके भीतर अभय और शरण पाते हैं। सिंह और गाय उनके चरणों में एक साथ पानी पीते हैं। उनके सामीप्य में सिंह-शावक गाय का थन पीने लगता है : और गोवत्स को सिंहनी अपने स्तन घवाने लगती है। स्वयम्-सिद्ध है कि प्रकृति में, स्वभाव में, हिंसा का कोई तात्विक, विधायक अस्तित्व नहीं। हिंसा और अस्तित्व परस्पर विरोधी तत्व हैं। जीव के मज्ञान से जब उसकी परिणति विभावात्मक और विकृत होती है, तो उसी के फलस्वरूप प्रकृति में विकृति का आविर्भाव होता है । विकृति सत्ता में, स्वभाव में, अस्ति में, आत्मा में कहीं है ही नहीं : वह हमारे आत्म-स्वरूप से स्खलन की निष्पत्ति है : वह हमारी स्वाभाविक स्थिति नहीं, वैभाविक परिणति है ! . . . ___ 'सच पूछिये, बापू, तो सत्ता में मूलगत रूप से ही, सम्वादिता, समत्व, प्रेम, कल्याण, संतुलन विराजमान हैं। अपने स्वरूप को विस्मृत कर, जब हम इच्छावासनाकुल होते हैं, तो अपने विकृत आचरणों से हम सृष्टि के, सत्ता के इस मौलिक सन्तुलन को भंग करते हैं। जिनेश्वरों ने लोक में ऐसे क्षेत्रों का अस्तित्व बताया है, जहाँ सर्वदा जीव मात्र एक सम्वादिता में जीते हैं। आपने तो शास्त्रों में पढ़ा ही होगा कि इसी जम्बूद्वीप में जो विदेह-क्षेत्र है, वह हमारे इस भरत-क्षेत्र से आत्मविकास के उच्चतर धरातल पर प्रतिष्ठित है। कहते हैं कि वहाँ ईति-भीति नहीं, जीवों में पारस्परिक शोषण-भक्षण नहीं, स्वराष्ट्र-परराष्ट्र के भेद और विग्रह नहीं, दुभिक्ष और महामारी नहीं। वहाँ तीर्थंकर, अरिहन्त और शलाका-पुरुष शाश्वत विद्यमान हैं। तब स्वयम्-सिद्ध है, कि सत्ता में पूर्ण संवादिता की यह सम्भावना मूलतः अन्तर्निहित है। कहीं वह व्यक्त हो गई है, कहीं वह अव्यक्त रह गई है। यदि विदेह क्षेत्र में यह सम्भव हो सका है, तो अन्यत्र भी वह सम्भव हो ही सकता है। अर्थात् पूर्ण अहिंसक, पूर्ण सम्वादी जीवन-जगत, अपने स्वभाव में ही एक अनिवार्य सम्भावना है। विकास के उस चरमोत्कर्ष पर पहुँचने में शायद हज़ारों-लाखों वर्ष लग जायें, पर वह इस धरती पर सिद्ध हो कर रहेगा, इसमें मुझे रंच भी सन्देह नहीं। सामने के इस सूर्य को क्या प्रमाणित करना होगा? मानव-इकाई अपनी चेतना को इस क्षण स्वभाव में आत्मस्थ करे, अपने को रूपान्तरित करे, और विकास का यह सम्वादी चक्र इसी क्षण चलायमान हो कर, विकृति के क्रम को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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